Wednesday, November 12, 2008

तुम पूछ रहे हो आठ साल, उत्तराखण्ड के हाल-चाल?

राज्य बनने की आठवीं वर्षगांठ पर जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की एक कविता

तुम पूछ रहे हो आठ साल, उत्तराखण्ड के हाल-चाल?

कैसे कह दूं, इन सालों में,
कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ,
दो बार नाम बदला-अदला,
दो-दो सरकारें बदल गई
और चार मुख्यमंत्री झेले।
"राजधानी" अब तक लटकी है,
कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर,
मानसिक सुई थी जहां रुकी,
गढ़-कुमूं-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि,
वो सुई वहीं पर अटकी है।
वो बाहर से जो हैं सो पर,
भीतरी घाव गहराते हैं,
आंखों से लहू रुलाते हैं।
वह गन्ने के खेतों वाली,
आंखें जब उठाती हैं,
भीतर तक दहला जातीं हैं।
सच पूछो- उन भोली-भाली,
आंखों का सपना बिखर गया।
यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस"
बनकर ठहर गया है।
जिसमें बैठे अधिकांश माफिया,
हैं या उनके प्यादे हैं,
बाहर से सब चिकने-चुपड़े,
भीतर नापाक इरादे हैं,
जो कल तक आंखें चुराते थे,
वो बने फिरे शहजादे हैं।
थोड़ी भी गैरत होती तो,
शर्म से उनको गढ़ जाना था,
बेशर्म वही इतराते हैं।
सच पूछो तो उत्तराखण्ड का,
सपना चकनाचूर हुआ,
यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का,
गहराता नासूर हुआ।
दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके,
जंगल-जल कत्लेआम हुआ,
जो पहले छिट-पुट होता था,
वो सब अब खुलेआम हुआ।

पर बेशर्मों से कहना क्या?
लेकिन "चुप्पी" भी ठी नहीं,
कोई तो तोड़ेगा यह ’चुप्पी’
इसलिये तुम्हारे माध्यम से,
धर दिये सामने सही हाल,
उत्तराखण्ड के आठ साल.....!

Friday, September 26, 2008

निर्मल पण्डित : चिंगारी उत्तराखण्ड आन्दोलन की



उत्तराखण्ड के जनसरोकारों से जुडे क्रान्तिकारी छात्र नेता स्वर्गीय निर्मल जोशी "पण्डित" छोटी उम्र में ही जन-आन्दोलनों की बुलन्द आवाज बन कर उभरे थे. शराब माफिया,खनन माफिया के खिलाफ संघर्ष तो वह पहले से ही कर रहे थे लेकिन 1994 के राज्य आन्दोलन में जब वह सिर पर कफन बांधकर कूदे तो आन्दोलन में नयी क्रान्ति का संचार होने लगा. गंगोलीहाट, पिथौरागढ के पोखरी गांव में श्री ईश्वरी प्रसाद जोशी व श्रीमती प्रेमा जोशी के घर 1970 में जन्मे निर्मल 1991-92 में पहली बार पिथौरागढ महाविद्यालय में छात्रसंघ महासचिव चुने गये. छात्रहितों के प्रति उनके समर्पण का ही परिणाम था कि वह लगातार 3 बार इस पद पर चुनाव जीते. इसके बाद वह पिथौरागढ महाविद्यालय में छात्रसंघ के अध्यक्ष भी चुने गये. 1993 में नशामुक्ति अभियान के तहत उन्होने एक सेमिनार का आयोजन किया. 1994 में उन्हें मिले जनसमर्थन को देखकर प्रशासन व राजनीतिक दल सन्न रह गये. उनके आह्वान पर पिथौरागढ के ही नहीं उत्तराखण्ड के अन्य जिलों की छात्रशक्ति व आम जनता आन्दोलन में कूद पङे. मैने पण्डित को इस दौर में स्वयं देखा है. छोटी कद काठी व सामान्य डील-डौल के निर्मल दा का पिथौरागढ में इतना प्रभाव था कि प्रशासन के आला अधिकारी उनके सामने आने को कतराते थे. कई बार तो आम जनता की उपेक्षा करने पर सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक तौर पर निर्मल दा के क्रोध का सामना भी करना पङा था. राज्य आन्दोलन के समय पिथौरागढ में भी उत्तराखण्ड के अन्य भागों की तरह एक समानान्तर सरकार का गठन किया गया था, जिसका नेतृत्व निर्मल दा के हाथों मे था. उस समय पिथौरागढ के हर हिस्से में निर्मल दा को कफन के रंग के वस्त्र पहने देखकर बच्चों से लेकर वृद्धों को आन्दोलन में कूदने का नया जोश मिला. इस दौरान उन्हें गिरफ्तार करके फतेहपुर जेल भी भेजा गया. आन्दोलन समाप्त होने पर भी आम लोगों के हितों के लिये पण्डित का यह जुनून कम नहीं हुआ. अगले जिला पंचायत चुनावों में वह जिला पंचायत सदस्य चुने गये. शराब माफिया और खनन माफिया के खिलाफ उन्होने अपनी मुहिम को ढीला नहीं पडने दिया.27 मार्च 1998 को शराब के ठेकों के खिलाफ अपने पूर्व घोषित आन्दोलन के अनुसार उन्होने आत्मदाह किया. बुरी तरह झुलसने पर पिथौरागढ में कुछ दिनों के इलाज के बाद उन्हें दिल्ली लाया गया.16 मई 1998 को जिन्दगी मौत के बीच झूलते हुए अन्ततः उनकी मृत्यु हो गयी. निर्भीकता और जुझारुपन निर्मल दा की पहचान थी. उन्होने अपना जीवन माफिया के खिलाफ पूर्णरूप से समर्पित कर दिया और इनकी धमकियों के आगे कभी भी झुकने को तैयार नहीं हुए. अन्ततः उनका यही स्वभाव उनकी शहीद होने का कारण बना. इस समय जब शराब और खनन माफिया उत्तराखण्ड सरकार पर हावी होकर पहाङ को लूट रहे हैं, तो पण्डित की कमी खलती है.उनका जीवन उन युवाओं के लिये प्रेरणा स्रोत है जो निस्वार्थ भाव से उत्तराखण्ड के हित के लिये काम कर रहे हैं.

Thursday, September 11, 2008

तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्

उत्तराखण्ड राज्य निर्माण प्राप्ति के संघर्ष के दौरान लोगों के दिलों में एक आदर्श राज्य का सपना था. राज्य की प्राप्ति के लिये लगभग 40 लोगों ने अपने प्राण न्यौछावर किये. अन्ततः राज्य तो बन गया, लेकिन 7 साल बीतने पर भी आन्दोलनकारियों के सपनों का राज्य एक सपना ही बना हुआ है.शराब के ठेकेदारों, भू माफियाओं और एन.जी ओ. के नाम पर चल रहे करोड़ों के व्यवसाय के बीच आम उत्तराखण्डी मानस ठगा सा महसूस कर रहा है.
सपना देखा गया था ऐसे राज्य का जिसमें चारों ओर खुशहाली हो. समाज के हर वर्ग की अपनी अपेक्षाएं थीं. नरेन्द्र सिंह नेगी जी की इस कविता के माध्यम से समाज के सभी वर्गों की आक्षांकाएं स्पष्ट होती हैं. भगवान से यही प्रार्थना है कि राज्य के नीतिनिर्धारकों के कानों तक नेगी जी का यह गीत पहुँचे, और वो हमारे सपनों का राज्य बनाने के लिये ईमानदारी और सच्ची निष्ठा से काम करें
.


बोला भै-बन्धू तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
हे उत्तराखण्ड्यूँ तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
जात न पाँत हो, राग न रीस हो,
छोटू न बडू हो, भूख न तीस हो,
मनख्यूंमा हो मनख्यात, यनूं उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला बेटि-ब्वारयूँ तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला माँ-बैण्यूं तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
घास-लखडा हों बोण अपड़ा हों,
परदेस क्वी ना जौउ सब्बि दगड़ा हों,
जिकुड़ी ना हो उदास, यनूं उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला बोड़ाजी तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला ककाजी तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
कूलूमा पाणि हो खेतू हैरयाली हो,
बाग-बग्वान-फल फूलूकी डाली हो,
मेहनति हों सब्बि लोग, यनूं उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला भुलुऔं तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला नौल्याळू तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
शिक्षा हो दिक्षा हो जख रोजगार हो,
क्वै भैजी भुला न बैठ्यूं बेकार हो,
खाना कमाणा हो लोग यनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला परमुख जी तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला परधान जी तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
छोटा छोटा उद्योग जख घर-घरूँमा हों,
घूस न रिश्वत जख दफ्तरूंमा हो,
गौ-गौंकू होऊ विकास यनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्!!

Wednesday, September 10, 2008

गिरीश तिवारी "गिर्दा" की एक कविता

"उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन" के दौरान सरकारी उत्पीडन व दमन का परिहास करती गिरीश तिवारी "गिर्दा" की यह पंक्तियां आम लोगों के मन पर अंकित हो गयीं.

गोलियां कोई निशाना बांधकर दागी थी क्या?
खुद निशाने पर आ पङी खोपङी तो क्या करें?
खामख्वां ही तिल का ताङ बना देते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पङी तो क्या करें?
काण्ड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत, रो पङे तो क्या करें?
आप जैसी दूरद्रष्टि, आप जैसे हौंसले,
देश की ही आत्मा गर सो गयी तो क्या करें?

Thursday, September 4, 2008

याद उन्हें भी करलो, जो लौट के घर ना आये...

उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में पुलिस की बर्बरता के शिकार होकर शहीद होने वाले अमर सपूत...


चौदहवीं बरसी पर अश्रुपूर्ण श्रद्धांजली
खटीमा 1 सितम्बर 1994







मंसूरी 2 सितम्बर 1994







मुजफ्फरनगर 2 अक्टूबर 1994


Thursday, August 28, 2008

उत्तराखण्ड के क्रांतिवीर-स्व० श्री विपिन चन्द्र त्रिपाठी/Vipin chandra tripathi

विपिन

              23 Feb, 1945-30 Aug, 2004

23 फरवरी, १९४५ को अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट के दौला गांव में जन्मे विपिन त्रिपाठी जी आम जनता में "विपिन दा" के नाम से प्रसिद्ध थे। पृथक राज्य आन्दोलन के वे अकेले ऎसे विकास प्रमुख रहे हैं, जिनके द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार को उत्तराखण्ड विरोधी नीतियों के खिलाफ दिये गये त्याग पत्र को शासन ने स्वीकार कर लिया था। २२ वर्ष की युवावस्था से विभिन्न आन्दोलनों की अगुवाई करने वाले जुझारु व संघर्षशील त्रिपाठी का जीवन लम्बे राजनैतिक संघर्ष का इतिहास रहा है। डा० लोहिया के विचारों से प्रेरित होकर १९६७ से ही ये समाजवादी आन्दोलनों में शामिल हो गये थे। भूमिहीनों को जमीन दिलाने की लड़ाई से लेकर पहाड़ को नशे व जंगलों को वन माफियाओं से बचाने के लिये ये हमेशा संघर्ष करते रहे। १९७०में तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त का घेराव करते हुये इनको पहली बार गिरफ्तार किया गया। आपातकाल में २४ जुलाई, १९७४ को प्रेस एक्ट की विभिन्न धाराओं में इनकी प्रेस व अखबार "द्रोणांचल प्रहरी" सील कर शासन ने इन्हें गिरफ्तार कर अल्मोड़ा जेल भेज दिया। अल्मोड़ा, बरेली, आगरा और लखनऊ जेल में दो वर्ष बिताने के बाद २२ अप्रेल, १९७६ को उन्हें रिहा कर दिया गया। द्वाराहाट में डिग्री कालेज, पालीटेक्निक कालेज और इंजीनियरिंग कालेज खुलवाने के लिये इन्होंने संघर्ष किया और इन्हें खुलवा कर माने। इन संस्थानों की स्थापना करवा कर उन्होंने साबित कर दिया कि जनता के सरोंकारों की रक्षा और जनता की सेवा करने के लिये किसी पद की आवश्यकता नहीं होती है। १९८३-८४ में शराब विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व करते हुये पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। मार्च १९८९ में वन अधिनियम का विरोध करते हुये विकास कार्य में बाधक पेड़ काटने के आरोप में भी गिरफ्तार होने पर इन्हें ४० दिन की जेल काटनी पड़ी। ईमानदारी और स्वच्छ छवि एवं स्पष्ट वक्ता के रुप में उनकी अलग पहचान बनी २० साल तक उक्रांद के शीर्ष पदों पर रहते हुये २००२ में वे पार्टी के अध्यक्ष बने और २००२ के विधान सभा चुनाव में वह द्वाराहाट विधान सभा क्षेत्र से विधायक निर्वाचित हुये। ३० अगस्त, २००४ को काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे छीन लिया।

Monday, August 11, 2008

ले मशाले चल पडे हैं, लोग मेरे गांव के,

बल्ली सिंह चीमा जी एक क्रान्तिकारी कवि के रूप में पूरे भारत में एक जाना पहचाना नाम हैं. वह ऊधमसिंह नगर के बाजपुर कस्बे में रहते हैं. उन्होनें आमजन के सरोकारों से जुङे मुद्दों और अपने अधिकारों की रक्षा के लिये संगठित होकर संघर्ष करने के लिये जोश भरने वाली कई मशहूर कविताएं लिखी हैं. उनकी एक कविता आप लोगों के लिये प्रस्तुत हैं. यह गीत उत्तराखण्ड आनदोलन के दौरान प्रमुख गीत बन कर उभरा. वर्तमान समय मे यह गीत भारत के लगभग सभी आन्दोलनों में मार्च गीत के रूप में व्यापक रूप से प्रयोग में लाया जाता है.

ले मशाले चल पडे हैं, लोग मेरे गांव के,
अब अंधेरा जीत लेंगे, लोग मेरे गांव के,
कह रही है झोपङी और पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे, लोग मेरे गांव के,
बिन लङे कुछ भी नहीं मिलता यहां यह जानकर
अब लङाई लङ रह हैं , लोग मेरे गांव के,
कफन बांधे हैं सिरो पर, हाथ में तलवार हैं,
ढूंढने निकले हैं दुश्मन, लोग मेरे गांव के,
एकता से बल मिला है झोपङी की सांस को
आंधियों से लङ रहे हैं, लोग मेरे गांव के,
हर रुकावट चीखती है, ठोकरों की मार से
बेडि़यां खनका रहे हैं, लोग मेरे गांव के,
दे रहे है देख लो अब वो सदा-ए -इंकलाब
हाथ में परचम लिये हैं, लोग मेरे गांव के,
देख बल्ली जो सुबह फीकी है दिखती आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे, लोग मेरे गांव के।

मुट्ट बोटीक रख!

नरेंद्र सिंह नेगी ने 1994 में उत्तरकाशी में जब यह पंक्तियां लिखीं, तब सामने अलग राज्य का संघर्ष था। आज अलग राज्य तो है, लेकिन आम आदमी का संघर्ष वही है। ऐसे में उनका यह गीत आज मुझ जैसे न जाने कितने लोगों को संबल देता है।

द्वी दिनू की हौरि छ ,
अब खैरि मुट्ट बोटीकि रख
तेरि हिकमत आजमाणू बेरि
मुट्ट बोटीक रख।
घणा डाळों बीच छिर्की आलु ये मुल्क बी
सेक्कि पाळै द्वी घड़ी छि हौरि,
मुट्ट बोटीक रख
सच्चू छै तू सच्चु तेरू ब्रह्म लड़ै सच्ची तेरी
झूठा द्यब्तौकि किलकार्यूंन ना डैरि
मुट्ट बोटीक रख।
हर्चणा छन गौं-मुठ्यार रीत-रिवाज बोलि
भासायू बचाण ही पछ्याण अब तेरि
मुट्ट बोटीक रख।
सन् इक्यावन बिचि ठगौणा
छिन ये त्वे सुपिन्या दिखैकी
ऐंसू भी आला चुनौमा फेरि
मुट्ट बोटीक रख।
गर्जणा बादल चमकणी
चाल बर्खा हवेकि राली
ह्वैकि राली डांड़ि-कांठी हैरि
मुट्टबोटीक रख।

Tuesday, July 15, 2008




उत्तराखण्ड के दो महान चिंतक स्व० इन्द्रमणि बडोनी एवं श्री काशी सिंह ऎरी






पर्वतीय गांधी स्व० इन्द्रमणि बडोनी




प्रमुख आन्दोलनकारी एक साथ





बडोनी जी आन्दोलनकारियों के साथ

अमर शहीद- बाबा मोहन उत्तराखण्डी

१९४९ में श्री मनबर सिंह रावत के घर में जन्मे श्री मोहन सिंह रावत को उत्तराखण्ड आन्दोलन में सक्रिय योगदान और संघर्षमय जीवन के कारण उन्हें बाबा मोहन उत्तराखण्डी कहा जाता था। वे जल, जंगल, जमीन और उत्तराखण्ड से संबंधित कई जनपक्षीय मुद्दों को लेकर जीवन भर संघर्षमय रहे। बाबा बचपन से ही संघर्षशील और जुझारु प्रवृत्ति के थे। वे पर्वतीय जनता के हितों के लिये सदैव ही चिंतित रहते थे। इण्टर तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सेना में भर्ती हो गये थे। किंतु पर्वतीय जनता के जल, जंगल, जमीन के सवालों पर उद्वेलित होकर उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह से समाजसेवा के लिये समर्पित हो गये। १९८६ से १९९१ तक वे ग्राम सभा बंठाली के ग्राम प्रधान रहे और इस पद पर रहते हुये उन्होंने जनसेवा और ईमानदारी की उत्कृष्ट मिसाल कायम की। अलग उत्तराखण्ड राज्य की प्राप्ति और गैरसैंण राजधानी को लेकर उन्होंने अपने जीवन काल में १३ बार आमरण अनशन किया। अंतिम बार जनपद चमोली के वेणीताल स्थित "टोपरी उडयार" पर गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाये जाने, स्थानीय युवाओं को रोजगार देने के लिये नीति बनाने और राज्य के समग्र विकास की मांग को लेकर उन्होंने २ जून, २००४ से अपना आमरण अनशन शुरु किया और अंततः ३९ दिन के अनशन के बाद ९ जुलाई, २००४ को राज्य हित में अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। उनका उत्तराखण्ड प्रेम वास्तव में अनुकरणीय है, यह ब्लाग उनके बलिदान पर श्रद्धासुमन अर्पित करता है। साथ ही उत्तराखण्ड सरकार से मांग करता है कि उनके शहादत दिवस (९ जुलाई) को राज्य आंदोलनकारी बलिदान दिवस के रुप में घोषित किया जाय।

Monday, April 28, 2008

उत्तराखण्ड आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास

उत्तराखंड राज्य आसानी से नहीं मिला है इसके लिये कई बार बंद और चक्काजाम की मार यहां की जनता को झेलनी पड़ी. इस आन्दोलन में लगभग 50 आन्दोलनकारी शहीद हुए.उत्तराखंड के संघर्ष से राज्य के गठन तक जिन महत्वपूर्ण तिथियों ने भूमिका निभायी वे इस प्रकार हैं- आधिकारिक सूत्रों के अनुसार मई 1938 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन मे गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करकने के आंदोलन का समर्थन किया.
सन् 1940 में हल्द्वानी सम्मेलन में बद्रीदत्त पाण्डेय ने पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा तथा अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमांऊ गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठन की मांग रखी.1954 में विधान परिषद के सदस्य इन्द्रसिंह नयाल ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत से पर्वतीय क्षेत्र के लिये पृथक विकास योजना बनाने का आग्रह किया तथा 1955 में फजल अली आयोग ने पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य के रूप में गठित करने की संस्तुति की.
वर्ष 1957 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष टीटी कृष्णमाचारी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं के निदान के लिये विशेष ध्यान देने का सुझाव दिया. 12 मई 1970 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान राज्य तथा केन्द्र सरकार का दायित्व होने की घोषणा की और 24 जुलाई

1979 में पृथक राज्य के गठन के लिये मसूरी में उत्तराखंड क्रांति दल की स्थापना की गयी. जून 1987 में कर्ण प्रयाग के सर्वदलीय सम्मेलन में उत्तराखंड के गठन के लिये संघर्ष का आह्वान किया तथा नवंबर 1987 में पृथक उत्तराखंड राज्य के गठन के लिये नयी दिल्ली में प्रदर्शन और राष्ट्रपति को ज्ञापन एवं हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में शामिल करने की मांग की गयी.
1994 उत्तराखंड राज्य एवं आरक्षण को लेकर छात्रों नेसामूहिक रूप से आन्दोलन किया 1 मुलायम सिंह यादव के उत्तराखंड विरोधी वक्तब्य से क्षेत्र में आन्दोलन तेज हो गया 1 उत्तराखंड क्रांतिदल के नेताओं ने अनशन किया 1 उत्तराखंड में सरकारी कर्मचारी पृथक राज्य की मांग के समर्थन में लगातार तीन महीने तक हड़ताल पर रहे तथा उत्तराखंड में चक्काजाम और पुलिस फायरिंग की घटनाएं हुई उत्तराखंड आन्दोलनकारियों पर मसूरी और खटीमा में पुलिस द्वारा गोलियां चलायीं गयीं 1 संयुक्त मोर्चा के तत्वाधान में दो अक्टूबर 1994 को दिल्ली में भारी प्रदर्शन किया गया 1 इस संघर्ष में भाग लेने के लिये उत्तराखंड से हजारों लोगों की भागेदारी हुयी 1 प्रदर्शन में भाग लेने जा रहे आन्दोलनकारियों को मुजफ्फर नगर में काफी पेरशान किया गया और उन पर पुलिस ने फायिरिंग की और लाठिया बरसायीं तथा महिलाओं के साथ अश्लील व्यहार और अभद्रता की गयी 1इसमें अनेक लोग हताहत और घायल हुये1इस घटना ने उत्तराखंड आन्दोलन की आग में घी का काम किया 1अगले दिन तीन अक्टूबर को इस घटना के विरोध में उत्तराखंड बंद का आह्वान किया गया जिसमें तोड़फोड़ गोलाबारी तथा अनेक मौतें हुयीं 1 सात अक्टूबर 1994 को देहरादून में एक महिला आन्दोलनकारी की मृत्यु हो गयी इसके विरोध में आन्दोलनकारियों ने पुलिस चौकी पर उपद्रव किया 1 पन्द्रह अक्टूबर को देहरादून में कफ्र्यू लग गया उसी दिन एक आन्दोलनकारी शहीद हो गया 1 27अक्टूबर 1994 को देश के तत्कालीन गृहमंत्री राजेश पायलट की आन्दोलनकारियों की वार्ता हुयी 1इसी बीच श्रीनगर में श्रीयंत्र टापू में अनशनकारियों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक प्रहार किया जिसमें अनेक आन्दोलनकारी शहीद हो गये 1 पन्द्रह अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा ने उत्तराखंड राज्य की घोषणा लालकिले से की 1सन् 1998 में केन्द्र की भाजपा गठबंधन सरकार ने पहली बार राष्ट्रपति के माध्यम से उ.प्र. विधानसभा को उत्तरांचल विधेयक भेजा 1 उ.प्र. सरकार ने 26 संशोधनों के साथ उत्तरांचल राज्य विधेयक विधान सभा में पारित करवाकर केन्द्र सरकार को भेजा 1 केन्द्र सरकार ने 27 जुलाई 200 0को उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 200 0 को लोकसभा मेंे प्रस्तुत किया जो 01 अगस्त 2000 को लोक सभा में तथा 10 अगस्त को राज्यसभा में पारित हो गया 1 भारत के राष्ट्रपति ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक को 28 अगस्त को अपनी स्वीकृति दे दी इसके बाद यह विधेयक अधिनियम में बदल गया और इसके साथ ही 09 नवंबर 2000 को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व मे आया जो अब उत्तराखंड नाम से अस्तित्व में है

उत्तराखण्ड आन्दोलन : सचित्र




































Wednesday, April 9, 2008

उत्तराखण्ड आन्दोलन का गिर्दा द्वारा लिखित कविता ! (बागस्यरौक गीत)

सरजू-गुमती संगम में गंगजली उठूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'भुलु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
उतरैणिक कौतीक हिटो वै फैसला करुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूंलो 'बैणी' उत्तराखण्ड ल्हयूंलो
बडी महिमा बास्यरै की के दिनूँ सबूतऐलघातै उतरैणि आब यो अलख जगूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'भुलु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो धन -मयेडी छाति उनरी,धन त्यारा उँ लाल, बलिदानै की जोत जगै ढोलि गै जो उज्याल खटीमा,मंसुरि,मुजफ्फर कैं हम के भुली जुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'चेली'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
कस हो लो उत्तराखण्ड,कास हमारा नेता, कास ह्वाला पधान गौं का,कसि होली ब्यस्था
जडि़-कंजडि़ उखेलि भली कैं , पुरि बहस करुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो वि कैं मनकसो बैंणूलोबैंणी फाँसी उमर नि माजैलि दिलिपना कढ़ाई
रम,रैफल, ल्येफ्ट-रैट कसि हुँछौ बतूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'ज्वानो' उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
मैंसन हूँ घर-कुडि़ हौ,भैंसल हूँ खाल, गोरु-बाछन हूँ गोचर ही,चाड़-प्वाथन हूँ डाल
धूर-जगल फूल फलो यस मुलुक बैंणूलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'परु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
पांणिक जागि पांणि एजौ,बल्फ मे उज्याल, दुख बिमारी में मिली जो दवाई-अस्पताल सबनै हूँ बराबरी हौ उसनै है बतूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
सांच न मराल् झुरी-झुरी जाँ झुट नि डौंरी पाला, सि, लाकश़ बजरी चोर जौं नि फाँरी पाला
जैदिन जौल यस नी है जो हम लडते रुंलो उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
लुछालुछ कछेरि मे नि हौ, ब्लौकन में लूट, मरी भैंसा का कान काटि खाँणकि न हौ छूट
कुकरी-गासैकि नियम नि हौ यस पनत कँरुलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
जात-पात नान्-ठुल को नी होलो सवाल, सबै उत्तराखण्डी भया हिमाला का लाल
ये धरती सबै की छू सबै यती रुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
यस मुलूक वणै आपुँणो उनन कैं देखुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो

कुली बेगार आन्दोलन

उत्तर भारत के सुरम्य प्रदेशों में उत्तराखण्ड का अपना विशिष्ट महत्व है। आधुनिक कुमायूं के इतिहास का सबसे पहला ऐतिहासिक विवरण हमें एटकिन्सन के गजेटियर जो १८८४-८६ में लिखा गया में मिलता है। भारत के इस कठिन भौगोलिक भूखण्ड में यातायात सदा से दुष्कर रहा है। यदि हम इतिहास के आइने में झांके कि सबसे पहले चन्द शासकों (१२५०-१७९० ई.) ने राज्य में घोडों से सम्बन्धित एक कर ’घोडालों‘ निरूपति किया था सम्भवतः कुली बेगार प्रथा का यह एक प्रारंभिक रूप था। आगे चल गोरखाओं के शासन में इस प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया लेकिन व अंग्रेजों ने अपने प्रारम्भिक काल में ही इसे समाप्त कर दिया। पर धीरे-धीरे अंग्रेजों ने न केवल इस व्यवस्था को पुनः लागू किया परंतु इसे इसके दमकारी रूप तक पहुंचाया। १८७३ ई. के एक सरकारी दस्तावेज से ज्ञात होता है कि वास्तव में यह कर तब आम जनता पर नहीं वरन् उन मालगुजारों पर आरोपित किया गया था जो भू-स्वामियों या जमीदारों से कर वसूला करते थे। अतः देखा जाये तो यह प्रथा उन काश्तकारों को ही प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती थी जो जमीन का मालिकाना हक रखते थे। पर वास्तविकता के धरातल पर सच यह था इन सम्पन्न भू-स्वामी व जमीदारों ने अपने हिस्सों का कुली बेगार, भूमि विहीन कृषकों, मजदूरों व समाज के कमजोर तबकों पर लाद दिया जिन्होंने इसे सशर्त पारिश्रमिक के रूप में स्वीकार लिया। इस प्रकार यह प्रथा यदा कदा विरोध के बावजूद चलती रही। १८५७ में विद्रोह की चिंगारी कुमाऊं में भी फैली। हल्द्वानी कुमांऊ क्षेत्र का प्रवेश द्वार था। वहां से उठे विद्रोह के स्वर को उसकी प्रारंभिक अवस्था में ही अंग्रेज कुचलने में समर्थ हुए। लेकिन उस समय के दमन का क्षोभ छिटपुट रूप से समय समय पर विभिन्न प्रतिरोध के रूपों में फूटता रहा। इसमें अंग्रेजों द्वारा कुमांऊ के जंगलों की कटान और उनके दोहन से उपजा हुआ असंतोष भी था। यह असंतोष घनीभूत होते होते एकबारगी फिर बीसवी सदी के पूर्वार्द्व में ’कुली विद्रोह‘ के रूप में फूट पडा। १८५७ के अल्पकालिक विद्रोह के बाद यह कुमांऊ में जनता के प्रतिरोध की पहली विजय थी। १९१३ ई. में जब कुली बेगार अल्मोडे के निवासियों पर लागू किया गया तो उन्होंने इसका प्रचण्ड विरोध किया। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि कुमांऊ क्षेत्रा विशेषकर अल्मोडा जनपद हमेशा से एक जागरूक जीवंत शहर रहा है व यहां के निवासियों ने सामाजिक सरोकार के प्रश्नों पर सदा से ही एक मत रखा है। इन लोगों का कुमांयू के समाज, साहित्य, लोक कलाओं आदि पर सदैव मजबूत पकड रही अतः यह स्वाभाविक था कि एसे जीवंत शहर के बाशिंदों द्वारा इस व्यवस्था का मजबूत प्रतिरोध होता। बद्रीदत्त पांडे इस आंदोलन के अगुआ नायक के रूप में उभरे। प्रसिद्ध अखबार ’’द लीडर‘‘ में सहायक सम्पादक के रूप में उभरने के बाद से उन्होंने १९१३ ई. में ’’अल्मोडा अखबार‘‘ की बागडोर संभाली। बद्रीदत्त पांडे जो कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे, उन्होंने इसको अंग्रेजों सत्ता के विरूद्ध हथियार बना लिया। ब्रिटिश शासन ने कुली बेगार के माध्यम से स्थानीय समाज के परम्परागत ढांचे को प्रभावित किया था। शासकों के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य कर चुके स्थापित भू-स्वामियों को इसने सबसे अधिक प्रभावित किया। इन प्रभावशाली स्थानीय व्यक्तियों को इन नई व्यवस्था में अन्य साधारण स्थानीय व्यक्तियों के समकक्ष समझा गया क्योंकि अंग्रेजों ने मौटे तौर पर समाज को केवल दो वर्गों-शासक व शासित में बांटा। इस नयी व्यवस्था से समाज के संपन्न और प्रभावशाली वर्ग में गहरा असंतोष था। ब्रिटिश सरकार ने इस असंतोष से निपटने का एक विलक्षण उपाय ढूंढा व इसे स्थानीय प्रथा कह स्वयं को इससे अलग करने का प्रयास किया। ऐसी स्थिति में स्थानीय जनता ने बद्रीदत्त पाडे के नेतृत्व में इसे बन्द कराने का संकल्प लिया व मकर संक्रांति के दिन बांगेश्वर में सभी गांवों के प्रतिनिधियों ने अपने-अपने गांवों के रजिस्टर ले जाकर उन्हें सरयू में प्रवाहित कर इस प्रथा के अंत की घोषणा की। ब्रिटिश सत्ता के लाख विरोध के बावजूद यह पूर्णत सफल प्रयास सा जिसमें लगभग ४०,००० गांवों के प्रतिनिधियों ने अपने-अपने रजिस्टर सरयू में प्रभावित किये। जनसंकल्प व दृढ निश्चय के इस अनूठे प्रयास ने महात्मा गांधी तक को रोमान्चित किया। स्वयं गांधी जी के शब्दों में ’’इसका प्रभाव सम्पूर्ण था। एक रक्तहीन क्रांति‘‘। यद्यपि इसे दबाने का प्रयत्न किया गया पर यह सफल रहा। इसी आन्दोलन ने बद्रीदत्त पाण्डे को कुमांयू केसरी की उपाधि दिलायी। गौरीदत्त पाण्डे उर्फ गौर्दा ने भी जो लोकप्रिय कवि थे इसका भरपूर समर्थन किया। लोक गीतों में भी इसका वर्णन मिलता है। बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में कुली बेगार प्रथा के अंत की घोषणा का स्थानीय लोक गीत विधा झौडा में कुछ इस प्रकार उल्लेख मिलता है- ’’ओ झकूनी ऊंनी यों हृदय का तारा, याद ऊं छ जब कुल्ली बेगारा।खै गया ख्वै गया बडी बेर सिरा, निमस्यारी डाली गया चौरासी फेराड्ड सुनरे पधाना यो सब पुजी गो, धान ल्या, चौथाई ध्यू को। ह्यून चौमास जेठ असाठा, नाड भुखै बाट लागा अलमोडी हाटाड्ड बोजिया बाटा लगा यो छिल काने धारा, पाछि पडी रै यो कोडों की मारा।यो दीन दशा देखी दया को, कूर्माचल केसरी बदरीदत्त नामा। यो विक्तर मोहना हरगोविन्द नामा, ऐ पूजा तीन वीरा।सन् इक्कीस उतरैणी मेला, यो, ऐ पूजा तीन वीरा गंगा ज्यू का तीरा।सरजू बगडा बजायो लो डकां, अबनी रौली यो कुल्ली बेगारा। क्रुक सन सैप यो चाऐ रैगो, कुमैया वीर को जब विजय है गो।सरयू गोमती जय बागनाया, सांति लै सकीगे कुल्ली प्रथा।यह एक जनांदोलन था। जिसने क्षेत्र को बद्रीदत्त पांडे, मोहन सिंह मेहता, हरि कृष्ण पांडे, केदार दत्त पंत , शिव दत्त जोशी, देवी लाल वर्मा, मोहन जोशी, धर्मानन्द भट्ट जैसे व्यक्तित्व दिये जिन्होंने आगे चल स्वतंत्राता आंदोलन मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

साभार - क्रियेटिव उत्तराखण्ड www.creativeuttarakhand.com

Wednesday, March 19, 2008

गैरसैंण के बारे में गिर्दा के छन्द

२४ सितम्बर, २००० को गिर्दा ने गैरसैंण रैली में यह छ्न्द कहे थे, जो सच भी हुये

कस होलो उत्तराखण्ड, कां होली राजधानी,
राग-बागी यों आजि करला आपुणि मनमानी,
यो बतौक खुली-खुलास गैरसैंण करुंलो।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

टेम्पुरेरी-परमानैन्टैकी बात यों करला,
दून-नैनीताल कौला, आपुंण सुख देखला,
गैरसैंण का कौल-करार पैली कर ल्हूयला।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

वां बै चुई घुमाल यनरी माफिया-सरताज,
दून बै-नैनताल बै चलौल उनरै राज,
फिरि पैली है बांकि उनरा फन्द में फंस जूंला।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

’गैरसैणाक’ नाम पर फूं-फूं करनेर,
हमरै कानि में चडि हमने घुत्ति देखूनेर,
हमलै यनरि गद्दि-गुद्दि रघोड़ि यैं धरुला।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

Friday, February 22, 2008

उत्तराखंड में परिसीमन पर फिर से हो विचार

साथियो,
आज हमारे उत्तराखण्ड राज्य के सामने दो प्रमुख राजनैतिक समस्याएं हैं, पहला तो स्थाई राजधानी का प्रकरण और दूसरा परिसीमन का प्रकरण। परिसीमन के मामले में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की चुप्पी रही, सिर्फ उत्तराखण्ड क्रान्ति दल ने ही इसे प्रमुखता से उठाया और इसका विरोध किया। जब परिसीमन आयोग उत्तराखण्ड आया था तो उक्रांद ने इसकी तीनों बैठकों (देहरादून, नैनीताल और पौड़ी) में विरोध किया और आयोग को उत्तराखण्ड की वास्तविक स्थितियों से अवगत भी कराया। उत्तराखण्ड में परिसीमन भौगोलिक आधार पर या २००२ के परिसीमन के आधार पर हो तो उचित होगा। क्योंकि नये परिसीमन से पहाड़ी क्षेत्रों की ९ विधानसभा क्षेत्र समाप्त हो जायेंगे और यह सीटें मैदानी क्षेत्रों में जुड़ जायेंगी। मेरा मानना है कि उत्तराखण्ड में नये परिसीमन की आवश्यकता नहीं है, उसे यथावत ही रहने देना चाहिये। नये परिसीमन के लागू होने से पर्वतीय जनपदों के निम्न विधान सभा क्षेत्र कम हो जायेंगे-
१- जिला चमोली से एक सीट (नन्दप्रयाग)
२- पौड़ी गढ़्वाल से दो सीटें (१- धूमाकोट २- biironkhaal)
३- पिथौरागढ़ से एक सीट (कनालीछीना)
४- बागेश्वर से एक सीट (कांडा)
५- अल्मोड़ा से एक सीट (भिकियासैंण)
पर्वतीय जनपदों से कुल ६ (छ्ह) सीटें कम होंगी, जो मैदानी जनपदों में जोड़ी जायेंगी निम्नानुसार-
१- देहरादून जनपद में एक सीट
2- हरिद्वार जनपद में दो सीट
3- नैनीताल जनपद में एक सीट
4- उधम सिंह नगर जनपद में दो सीट
टिहरी, चम्पावत, रुद्रप्रयाग तथा उत्तरकाशी जनपदों में विधान सभा क्षेत्र यथावत रखे गये हैं।

साथियो,
उत्तराखण्ड में विधान सभा क्षेत्रों का परिसीमन २००१ में वर्ष १९७१ की जनगणना के आधार पर किया गया था। इसी परिसीमन में उत्तराखण्ड के साथ न्याय नहीं हो पा रहा था, रुद्रप्रयाग और चम्पावत जैसे दुर्गम इलाकों में १ लाख १४ हजार की आबादी पर विधान सभा क्षेत्र बनाये गये, वहीं देहरादून में ४९ हजार की आबादी पर एक विधायक बना दिया गया। हरिद्वार जनपद में जहां हर १६ किलोमीटर पर एक विधायक है वहीं पर्वतीय जनपदों में १३५ किलोमीटर पर एक विधायक है। हरिद्वार का विधायक एक ही दिन में अपने क्षेत्र का दो बार भ्रमण कर सकता है, वहीं धार्चूला का विधायक जिसका क्षेत्र जौलजीबी से शुरू होकर चीन बार्डर तक है, उसे १३५ किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। जिसमें ४० किलोमीटर ही सड़क मार्ग है, शेष ९५ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। १० हजार फीट की ऊंचाई पर चीन सीमा से लगी जोहार, व्यांस और दारमा वैली की ४०० किलोमीटर की दूरी तय कर पाना क्या किसी चुनौती से कम है, आज फिर से परिसीमन करके उस क्षेत्र को और बढा दिया जायेगा। मैदानी जिले में २६१ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर एक विधायक है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में इससे १० गुना करीब २६४८ वर्ग किलोमीटर पर एक विधायक है। साफ है कि पहाड़ों की विषम भौगोलिक स्थिति और वहां पर संचार, सड़क और अन्य बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, उसके आधार पर यह परिसीमन कैसे हमें मान्य हो सकता है। विधायक निधि को ही देखा जाय तो वर्तमान में जो परिसीमन लागू किया जा रहा है, उससे ही पर्वतीय क्षेत्रों का प्रतिवर्ष ९.०० करोड़ रूपया विधायक निधि का ही कम हो गया है। आंकड़ों को देखा जाय तो मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या के प्रतिशत में लगातार वृद्दि हुई और पर्वतीय क्षेत्रों में यह आंकड़ा लगातार घट रहा है, रोजगार के लिये पलायन करना हमारी मजबूरी है। संविधान के अनुच्छेद ८१ एव ८२ में प्रावधान है कि प्रत्येक जनगणना के बाद विधान सभा और लोक सभा क्षेत्रों का परिसीमन किया जाय तथा ८४ वें संशोधन के अनुसार में १९७१ की जनगणना के आधार पर हुये परिसीमन को २००१ तक व १९९१ की जनसंख्या के आधार पर हुये परिसीमन को २०२६ तक परिसीमित मान लिया गया। संविधान के ८४ वें सशोधन में यह व्यवस्था की गई थी कि राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों को १९७१ की जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन सीटों का आवंटन किया जायेगा और इसके बाद २००१ की जनगणना के आधार पर फिर समायोजित किया जायेगा। इस प्रकार प्रस्तावित परिसीमन दो वर्षो १९७१ और २००१ की जनसंख्या के आधार पर किया गया था, न कि २००१ की गणना पर। इसमें यह भी व्यवस्था थी कि जिन राज्योम में १९७१ की जनगणना के चाधार पर परिसीमन हो गया है, वहां २०२६ तक परिसीमन की आवश्यकता नहीं है। चूंकि उत्तराखण्ड में १९७१ की गणना के आधार पर परिसीमन किया जा चुका था, तो इसे इस परिसीमन से अलग रखा जाना चाहिये था।

Tuesday, January 29, 2008


परिसीमन का विरोध करते लोग

Wednesday, January 23, 2008

आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,

गिरीश तिवारी "गिर्दा" की मर्मस्पर्शी कविता


आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,
नी करण दियौ हमरी निलामी, नी करण दियौ हमरो हलाल।
विचारनै की छां यां रौजै फ़ानी छौ, घुर घ्वां हुनै रुंछौ यां रात्तै-ब्याल,
दै की जै हानि भै यो हमरो समाज, भलिकै नी फानला भानै फुटि जाल।
बात यो आजै कि न्हेति पुराणि छौ, छांणि ल्हियो इतिहास लै यै बताल,
हमलै जनन कैं कानी में बैठायो, वों हमरै फिरी बणि जानी काल।
अजि जांलै कै के हक दे उनले, खालि छोड़्नी रांडा स्यालै जै टोक्याल,
ओड़, बारुणी हम कुल्ली कभाणिनाका, सांचि बताओ धैं कैले पुछि हाल।
लुप-लुप किड़ पड़ी यो व्यवस्था कैं, ज्यून धरणै की भें यौ सब चाल,
हमारा नामे की तो भेली उखेलौधें, तैका भितर स्यांणक जिबाड़ लै हवाल।
भोट मांगणी च्वाख चुपड़ा जतुक छन, रात-स्यात सबनैकि जेड़िया भै खाल,
उनरै सुकरम यौ पिड़ै रैई आज, आजि जांणि अघिल कां जांलै पिड़ाल।
ढुंग बेच्यो-माट बेच्यो, बेचि खै बज्याणी, लिस खोपि-खोपि मेरी उधेड़ी दी खाल,
न्यौलि, चांचरी, झवाड़, छपेली बेच्या मेरा, बेचि दी अरणो घाणी, ठण्डो पाणि, ठण्डी बयाल।

Tuesday, January 22, 2008

उत्तराखण्ड के अमर शहीदों को प्रसिद्द जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की श्रद्दांजलि

थातिकै नौ ल्हिन्यू हम बलिदानीन को, धन मयेड़ी त्यरा उं बांका लाल।
धन उनरी छाती, झेलि गै जो गोली, मरी बेर ल्वै कैं जो करी गै निहाल॥
पर यौं बलि नी जाणी चैनिन बिरथा, न्है गयी तो नाति-प्वाथन कैं पिड़ाल।
तर्पण करणी तो भौते हुंनी, पर अर्पण ज्यान करनी कुछै लाल॥
याद धरो अगास बै नी हुलरौ क्वे, थै रण, रणकैंणी अघिल बड़ाल।
भूड़ फानी उंण सितुल नी हुनो, जो जालो भूड़ में वीं फानी पाल।।
आज हिमाल तुमन के धत्यूछौ, जागो-जागो हो म्यरा लाल....!

हिन्दी भावार्थ-

नामयहीं पर लेते हैं उन अमर शहीदों का साथी, कर प्राण निछावर हुये धन्य जो मां के रण-बांकुरे लाल।
हैं धन्य जो कि सीना ताने हंस-हंस कर झेल गये गोली, हैं धन्य चढ़ाकर बलि कर गये लहू को जो निहाल॥
इसलिए ध्यान यह रहे कि बलि बेकार ना जाये उन सबकी, यदि चला गया बलिदान व्यर्थ युगों-युगों पड़ेगा पहचान।
तर्पण करने वाले तो अपने मिल जायेंगे बहुत, मगर अर्पित कर दें जो प्राण, कठिन हैं ऎसे अपने मिल पाना॥
ये याद रहे आकाश नहीं टपकता है रणवीर कभी, ये याद रहे पाताल फोड़ नहीं प्रकट हुआ रणधीर कभी।
ये धरती है, धरती में रण ही रण को राह दिखाता है, जो समर भूमि में उतरेगा, वही रणवीर कहाता है॥
इसलिए, हिमालय जगा रहा है तुम्हें कि जागो-जागो मेरे लाल........!

Tuesday, January 8, 2008

उत्तराखंड में परिसीमन पर फिर से हो विचार

देहरादून। उक्रांद विधायक पुष्पेष त्रिपाठी ने कहा कि नागालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और झारखंड की तरह ही उत्तराखंड के परिसीमन पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। उत्तराखंड में विधानसभा सीटों के परिसीमन को पहाड़ के लिए अन्यायपूर्ण बताते हुए श्री त्रिपाठी ने इसके लिए दोनों राष्ट्रीय दलों भाजपा तथा कांग्रेस के सांसदों को जिम्मेदार ठहराया। श्री त्रिपाठी ने एक बयान में कहा कि पर्वतीय क्षेत्र की दुरूह भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए परिसीमन में जनसंख्या के साथ भौगोलिक आधार पर भी गौर करने की मांग लगातार उठती रही। इसी आधार पर उक्त राज्यों के प्रस्तावों पर केंद्र सरकार वहां परिसीमन अयोग द्वारा किए गए परिसीमन के बाद भी संशोधन करने जा रही है। पहाड़ के साथ हो रहे अन्याय के लिए उन्होंने दोनों राष्ट्रीय दलों के सांसदों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि संसद में 84वां संशोधन के दौरान इन दोनों राष्ट्रीय दलों के सांसदों ने परिसीमन पर पर्वतीय क्षेत्र की भावनाओं को कभी आवाज देने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कहा कि वर्तमान मुख्यमंत्री भी तब संसद सदस्य थे। राज्य में भाजपा को समर्थन देते समय उक्रांद के नौ बिंदुओं पर भाजपा से अपनी सहमति दी थी। इसका चौथा बिंदु है- 2001 की जनसंख्या के आधार पर हुए परिसीमन को स्थगित कर जनसंख्या और भौगोलिक आधार पर परिसीमन लिए विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर संसद को भेजा जाएगा। विस के दो सत्र हो चुके हैं पर भाजपा ने इस महत्वपूर्ण बिंदु पर कभी गौर करने की जरूरत नहीं समझी। श्री त्रिपाठी ने कहा कि केंद्र सरकार के राजनीतिक मामलों की केबिनेट कमेटी ने नए परिसीमन को हरी झंडी दे दी है। लेकिन सिर्फ पांच राज्यों नागालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और झारखंड में परिसीमन में संशोधन होने जा रहा है। उन्होंने कहा कि यदि यहां की विस से इस तरह का प्रस्ताव संसद को भेजा जाए तो सूबे के परिसीमन में संशोधन हो सकता है। उन्होंने कहा कि जनसंख्या के आधार पर हुए परिसीमन में पहले पर्वतीय क्षेत्र से नौ सीटें कम होने की बात कही जा रही थी पर बाद में मानकों में ढील देने का दावा करते हुए छह सीटें कम की गई। उन्होंने कहा कि यदि मानकों में ढील देना संभव है तो फिर पर्वतीय क्षेत्र से एक भी सीट कम नहीं होनी चाहिए।

उत्तराखण्ड ने अब ठानी है, सिर्फ गैरसैंण राजधानी है..!


Gairsain : Second phase of Uttarakhand Movement



Gairsain is not an unfamiliar idea. It was widely accepted as the capital of Uttarakhand even before the demand for a separate hill state came into full swing in 1994. In fact, Gairsain is not a geographical entity alone, it is a complete philosophy of development to be achieved through the 73rd and 74th Amendments of our Constitution.If the present state of things is to be kept forever, then it is alright to make Dehradun as the permanent capital of Uttaranchal. But if we want to tilt our priorities towards that distant person, who has been left far behind in the U.P. model of development, then we will have to make Gairsain our capital. Dehradun means that those who are already better off, will continue to reap the harvest of well being in this new state too. Gairsain means that the government is determined to go to the door of the poorest. Dehradun in no way represents a geography in which the people, though provided handsomely by mother nature, are forced to live in utter poverty. It is as simple as that.The irony is, that those who were never interested in a separate state, and in fact who opposed the very idea of Uttarakhand are ruling it since it came into being. Mr. Narayan Dutt Tewari had declared in 1994, ''I will not allow Uttarakhand to take shape as long as I am alive.'' Today he heads this state. What a mockery of all those martyrs who sacrificed their lives to fulfil a dream of their people!Even after Uttaranchal became a reality, Baba Mohan Uttarakhandi had to lay down his life for Gairsain after a fast, lasting 39 days. This tragic event took place on 9th August 2004. Then the activists of Uttarakhand Mahila Manch took over. They started a fast unto death, two at a time, from 2nd October, the tenth anniversary of the infamous Muzaffarnagar incident. During the fast when one woman, whose condition deteriorated, would be forcibly removed and force-fed by Chamoli District Police and Administration, another would take her place. Women activists had to bear the cruel repression of the police, as they were often lathi charged while being forcibly removed. This sequence continued for 63 days. But no one from the Uttaranchal Government came to talk to the women.This was when the Congress Govt. in Andhra Pradesh was holding talks with the outlawed Naxalite outfits across the table, in Uttaranchal the Chief Minister did not consider the women activists, who sacrificed everything in the historic movement of 1994, fit to talk with. The Uttaranchal Chief Secretary remarked sarcastically, ''Uttarakhand activists should not agitate for an impossible demand.'' This same man, Dr. R.S.Tolia, as a secretary in undivided U.P., had finalised the Ramashankar Kaushik Cabinet Committee report in 1994 which, after prolonged deliberations, had declared Gairsain as the most suitable place for the capital of proposed Uttarakhand state. This apathy forced the Uttarakhand activists to review their tactics.The Uttaranchal Government had no concern for their lives. The mainstream media would not write about them, as a propagator of consumer economy, it covertly supports the idea of keeping up the capital in Dehradun. Bureaucrats and businessmen in Dehradun does suit its commercial interests more than the ill fed and half naked villagers. If media does not ridicule the emotions of Uttarakhand, it tries to ignore them. So, the best idea, the activists thought, will be to go straight to the people. It was the people who had made the impossible task possible and created this state. But now let down by the politicians, disillusioned and disorganised, they sought counsel. ''Padyatra'' was the time tested method.Mahatma Gandhi had undertaken many Padyatras to know the Indian people better. Dandi Yatra is a glorious page of our history. Even recently, Dr. Rajshekhar Reddy took a Padyatra to defeat the might of Chandra Babu Nayadu in Andhra Pradesh. Well, they are going to the people and will undertake as many Padyatras, as possible, this was decided by the Uttarakhand Samyukta Sangharsh Samiti. Led by Dr. Shamsher Singh Bisht, President of Uttarakhand Lok Vahini, Kamla Pant and Dr. Uma Bhatt of Uttarakhand Mahila Manch and veteran journalist Harish Chandola the first Padyatra started on 5th December 2004 from Gairsain. Well known poet and cultural activist Girish Tewari ''Girda'' and Editor of ''Pahar'' Dr. Shekhar Pathak were there among others to see them off. Congress M.L.A. Pradeep Tamta accompanied the first Padyatris for a while. The last pair of hunger strikers, Chandrakala Chamoli and Padma Gupta were with these Padyatris in a jeep. On the way these two were forcibly taken away by the Police in Gholteer, near Karnaprayag and were put in a hospital.The youngest among the Padyatris was 11 years old Aditya Pande, who did not mind walking 15 to 20 Kms per day. Everywhere the Padyatris were accorded a warm welcome. The Padyatris sung songs, raised slogans, distributed their pamphlets titled ''Gairsain ka matlab sabke chehre par muskan aaye'' (Gairsain means a smile on every face) and ''Sirf bhavnayen hee nahin hain Gairsain aandolan ke peeche'' (There are not only emotions behind the Gairsain movement) and sold the Pahar booklet ''Rajdhani Ka Prasna'' (The question of the capital) on their way. They addressed quick meetings wherever they saw a few shops. Their boarding and lodging was taken care of by those who symphathised with their cause, they did not have to pay for it.Oh yes, they were presented with little purses whenever they requested the audience after a roadside meeting. With this money they were able to pay for the rent and fuel of the jeep following them, with a sound system and their luggage and literature. Walking almost 200 Kms. through Jangalchatti, Adibadri, Simli, Karnaprayag, Rudraprayag, Srinagar, Kirtinagar, Maletha, Pachhmoli, Devprayag, Vyasi, Vashisht Gufa, Tapovan, Muni Ki Reti, Swargashram, Rishikesh, Raiwala, Bhaniawala and Doiwala, 16 tired but smiling Padyatris reached Jogiwala at the outskirts of Dehradun on the evening of 19th December.They included Dr. Shamsher Singh Bisht, Kamla Pant, Rajiv Lochan Sah, Jabbar Singh Powel, Mahesh Chandra Joshi, Pooran Chandra Tewari, Daya Krishna Kandpal, Manish Sundariyal, Dinesh Chandra Joshi, K.C.Joshi, Pushkar Singh Lodhiyal, Dan Singh Bisht, Soban Singh, Pushpa Chauhan, Neetu Badoni and Heera Bisht. Next day, on their final leg towards Vidhan Sabha Bhawan, they were joined by hundreds of local Samyukta Sangharsh Morcha activists.The police had put a big barricade to stop them at Rispana Bridge, but it could not hold the demonstrators for long. They broke loose and held a two hour long public meeting outside the Vidhan Sabha gate. On 21st of December 2004 Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha started a 5 day Upvaas on Rajpur Road, in front of the Rajya Sachivalay gate. There was a scuffle with the Police when they put up the tent there, but finally the Police had to back out. Five persons, Kamla Pant, Rajiv Lochan Sah, Chandrakala Bisht, Satish Lakhera and Manish Sundariyal undertook the five day fast, while others accompanied them with 24 hours relay fast.People in large numbers, from all sections of society came to the Upvaas Sthal to express their support. They listened to the activists, took their literature, became familiar with the concept of Gairsain and offered whatever money they could spare for this cause. One fact that was obvious during this Upvaas was that eighty percent of the residents of Dehradun are tired of the so called ''Provisional Capital.'' They have been deprived of their peaceful life. Dehradun has become a noisy and polluted town. Crime is on the increase. Only twenty percent of the populace is satisfied with the Capital''s present location. These are the people, who have successfully put themselves inside the scheme of things and are reaping the harvest of a new state in form of contracts and other businesses.During this Upvaas, the Uttarakhand Mahila Manch activists angered by some remarks of Justice Virendra Dixit, chairman of one man Rajdhani Sthal Chayan Ayog, published in Press, ''gheraoed'' him and also stopped the Delhi bound Shatabdi Express for a while. Justice Dixit was unable to answer the demonstrators'' question that if he was honest in his intentions, then why did he not stop the State Government from spending lavishly in Dehradun and gave it an excuse for the future that after so much expenditure it would be unwise to remove the capital from there. Meanwhile, Uttarakhand Kranti Dal also started a fast unto death in Dehradun Collectorate compound. The first hunger striker, Prithvi Chand Ramola, was forcibly removed and force-fed within two days. The others followed suit. The first Padyatra was a morale boosting experience for the activists and within a fortnight Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha started another one.They started from Gairsain on the 7th of January. This time the destination was Bageshwar, where they were to reach on the auspicious day of Makar Sankranti. Makar Sankranti is observed as the famous Uttarayani Fair in Bageshwar. This day has a political importance too. On the Uttarayani of 1921, the registers of Coolie Begar, i.e., forced labour were set afloat in the confluence of Saryu and Gomti by the Kumaon Parishad activists under the leadership of Pt. Badri Dutt Pande and hence a disgraceful custom was put to an end. Since that day, it has become customary, first for the Congress and after Independence for other political parties too, to hold their rallies in Bageshwar on every Uttarayani. It was an appropriate time for Uttarakhand activists to address the masses. So in a manner, similar to the previous Padyatra, the group of Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha activists reached Bageshwar on the afternoon of 13th January 2004 via Panduwakhal, Chaukhutia, Dwarahaat, Binta, Someshwar, Kausani and Garur,.The group included Dr. Shamsher Singh Bisht, Kamla Pant, Rajiv Lochan Sah, Pushpa Chauhan, Mahesh Chandra Joshi, Daya Krishna Kandpal, Pooran Chandra Tewari, Bhaskar Upreti, Ramesh Pargain, Manish Sundariyal, Deepak Maithani, Laxman Giri Goswami, Dinesh Chandra Joshi, Soban Singh, Kalawati Goswami, Chandrakala Chamoli, Devki Farswan, Savitri Silswal and Pawna Semwal. Dr. Uma Bhatt and Satish Lakhera had to drop out midway for personal reasons. The slogan shouting group was given a warm reception by Bageshwar District Bar Association, where they addressed a meeting. In the evening they were offered the Bageshwar Mela Samiti Stage meant for cultural programmes. The voice of Dr. Shamsher Singh Bisht, elaborating the concept of Gairsain, was carried far and wide through the loud speakers scattered all over the town. The activist even had the songs of Girda, Narendra Singh Negi and Zahoor Alam for the audience.Later they marched through the streets of Bageshwar with their songs, slogans and pamphlets. In comparison, the performance of the other political parties like the BJP and the Congress in the historic ''Bagar'' was lack lustre and poorly attended. Padyatras have now been suspended for a while, keeping the adverse winter weather in mind. They will soon start again. The Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha has decided on some treks. One will be in the Nanda Devi Bio Sphere Reserve area of Chamoli district, where the villagers have been deprived of their customary rights in the forests. Another Padyatra will be taken through the catchment of Bhagirathi and Bhilangna rivers in Tehri district, where entire stretches of the rivers have been sold to the outside companies without taking the local populace in confidence. Yet another Yatra, Sangharsh Morcha plans from Almora to Dharchula near the Nepal border.After all these Padyatras, with all doubts and confusions removed from the minds of the people and persons with zeal and courage identified, Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha intends to hold a meeting on the 23rd of April 2005, the anniversary of the Peshawar incident, when Veer Chandra Singh Garhwali refused to fire on unarmed Pathans and instead opted for life imprisonment. In this convention the strategy for the next round of Uttarakhand movement will be decided. Meanwhile angered by the apathy of the state MLAs, who totally ignored the ongoing agitation about Gairsain in the entire winter session of Vidhan Sabha and preferred to get their allowances enhanced instead, Kamla Pant, convener of Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha and Satish Lakhera, convener of its Gairsen unit staged a protest in the House on 20th January, the last day of the session by slogan shouting. They were immediately arrested but were let free later in the evening. So, the struggle for Gairsain goes on.



साभार RAJEEV LOCHAN SHAH: uttaranchal.ws