Wednesday, December 26, 2007

उत्तराखण्ड आन्दोलन के प्रमुख नारे


"जय भारत! जय उत्तराखण्ड!!"

"लड़ के लेंगे, भिड़ के लेंगे, ले के रहेंगे, उत्तराखण्ड"

"मडुवा-झंगोरा खायेंगे, उत्तराखण्ड बनायेंगे"

"उत्तराखण्ड राज्य हमारा जन्मसिद्द अधिकार है"

"एक ही नारा, एक ही जंग, उत्तराखण्ड-उत्तराखण्ड"

"आज दो, अभी दो, उत्तराखण्ड राज्य दो"

"उत्तराखण्ड ने अब ठानी है, गैरसैंण राजधानी है"

"नही होता फैसला जब तक, जंग हमारी जारी है"
आज के परिप्रेक्ष्य में कुछ नारे
"पानी रोको, जवानी रोको, उत्तराखण्ड की बर्बादी रोको"
"ना भाबर, ना सैंण, राजधानी सिर्फ गैरसैंण"
"उत्तराखण्ड ने अब ठानी है, सिर्फ गैरसैंण राजधानी है"
"प्रश्न यह नही है कि जिम्मेदारी कौन ओढता है,प्रश्न यह है कि हवाओ का रुख कौन मोडता है,हम सब एक लम्बे इन्तजार मे बैठे है,और बैठे रहने से कुछ नही होता!
"ना भाबर ना सैण, राजधानी सिर्फ गैरसैण!"


उत्तराखण्ड आन्दोलन पोस्टरों पर




































































































Wednesday, December 19, 2007

उत्तराखण्ड आन्दोलन का इतिहास

मेरे एक अभिन्न मित्र श्री राजेन सावंत द्वारा उत्तराखण्ड आन्दोलन के इतिहास को एकत्र किया गया है, जो आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है...

१९३८ से पहले गोरखो के आक्रमण व उनके द्वारा किये अत्याचरो से अन्ग्रेजी शासन द्वारा मुक्ति देने व बाद मे अन्ग्रेजो द्वारा भी किये गये शोषण से आहत हो कर उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवियो मे इस क्षेत्र के लिये एक प्रथक राजनैतिक व प्रशासनिक इकाई गठित करने पर गम्भीरता से सहमति घर बना रही थी. समय-समय पर वे इसकी मांग भी प्रशासन से करते रहे.
१९३८ = ५-६ मई, को कांग्रेस के श्रीनगर गढ्वाल सम्मेलन मे क्षेत्र के पिछडेपन को दूर करने के लिये एक प्रथक प्रशासनिक व्यवस्था की भी मांग की गई. इस सम्मेलन मे माननीय प्रताप सिह नेगी, जवाहर लाल नेहरू व विजयलक्षमी पन्डित भी उपस्थित थे.
१९४६: हल्द्वानी सम्मेलन मे कुर्मान्चल केशरी माननीय बद्रीदत्त पान्डेय, पुर्णचन्द्र तिवारी, व गढ्वाल केशरी अनसूया प्रसाद बहुगुणा द्वारा पर्वतीय क्षेत्र के लिये प्रथक प्रशासनिक इकाई गठित करने की माग की किन्तु इसे उत्तराखण्ड के निवासी एवं तात्कालिक सन्युक्त प्रान्त के मुख्यमन्त्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने अस्वीकार कर दिया.
१९५२: देश की प्रमुख राजनैतिक दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम महासचिव, पी.सी. जोशी ने भारत सरकार से प्रथक उत्तराखण्ड राज्य गठन करने का एक ग्यापन भारत सरकार को सोपा. पेशावर काण्ड के नायक व प्रसिद्द स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्र सिह गढ्वाली ने भी प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरु के समक्ष प्रथक पर्वतीय राज्य की माग क एक ग्यापन दिया.
१९५५: २२ मई नई दिल्ली मे पर्वतीय जनविकास समिति की आम सभा सम्पन्न. उत्तराखण्ड क्षेत्र को प्रस्तावित हिमाचल प्रदेश में मिला कर वृहद हिमाचल प्रदेश बनाने की मांग.
१९५६: पृथक हिमाचल प्रदेश बनाने की मांग राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा ठुकराने के बाबजूद गृह मन्त्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने अपने बिशेषाधिकारों का प्रयोग करते हुये हिमाचल प्रदेश की मांग को सिद्धांत रूप में स्वीकार किया. किन्तु उत्तराखण्ड के बारे में कुछ नहीं किया.
१९६६: अगस्त माह में उत्तरप्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र के लोगों ने प्रधानमन्त्री को ग्यापन भेज कर पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग की.
१९६७: (१० - ११ जून) : जगमोहन सिंह नेगी एवम चन्द्र भानु गुप्त की अगुवाई में रामनगर कांग्रेस सम्मेलन में पर्वतीय क्षेत्र के विकास के लिये पृथक प्रशासनिक आयोग का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा.
२४-२५ जून, पृथक पर्वतीय राज्य प्राप्ति के लिये आठ पर्वतीय जिलों की एक "पर्वतीय राज्य परिषद" का गठन नैनीताल में किया गया जिसमें दयाकृष्ण पान्डेय अध्यक्ष एवम ऋशिबल्लभ सुन्दरियाल, गोविन्द सिहं मेहरा आदि शामिल थे.
१४-१५ अक्टूबर: दिल्ली में उत्तराखण्ड विकास संगोष्टी का उदघाटन तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री अशोक मेहता द्वारा दिया गया जिसमें सांसद एवम टिहरी नरेश मान्वेन्द्र शाह ने क्षेत्र के पिछडेपन को दूर करने के लिये केन्द्र शासित प्रदेश की मांग की.
१९६८: लोकसभा में सांसद एवम टिहरी नरेश मान्वेन्द्र शाह के प्रस्ताव के आधार पर योजना आयोग ने पर्वतीय नियोजन प्रकोष्ठ खोला.

१९७०: (१२ मई) तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान प्राथमिकता से करने की घोषणा की.
१९७१: मा० मान्वेन्द्र शाह, नरेन्द्र सिंह बिष्ट, इन्द्रमणि बडोनी और लक्षमण सिंह जी ने अलग राज्य के लिये कई जगह आन्दोलन किये.
१९७२: श्री रिषिबल्लभ सुन्दरियाल एवम पूरण सिंह डंगवाल सहित २१ लोगों ने अलग राज्य की मांग को लेकर बोट क्लब पर गिरफ़्तारी दी.
१९७३: पर्वतीय राज्य परिषद का नाम उत्तराखण्ड राज्य परिषद किया गया. सांसद प्रताप सिंह बिष्ट अध्यक्ष, मोहन उप्रेती, नारायण सुंदरियाल सदस्य बने.
१९७८: चमोली से विधायक प्रताप सिंह की अगुवाई में बदरीनाथ से दिल्ली बोट क्लब तक पदयात्रा और संसद का घेराव का प्रयास. दिसम्बर में राष्ट्रपति को ग्यापन देते समय १९ महिलाओं सहित ७१ लोगों को तिहाड भेजा गया जिन्हें १२ दिसम्बर को रिहा किया गया.
१९७९: सांसद त्रेपन सिंह नेगी के नेत्रत्व में उत्तराखण्ड राज्य परिषद का गठन. ३१ जनवरी को भारी वर्षा एवम कडाके की ठंड के बाबजूद दिल्ली में १५ हजार से भी अधिक लोगों ने पृथक राज्य के लिये मार्च किया.
१९७९: (२४-२५ जुलाई) मंसूरी में पत्रकार द्वारिका प्रसाद उनियाल के नेत्रत्व में पर्वतीय जन विकास सम्मेलन का आयोजन. इसी में उत्तराखण्ड क्रांति दल की स्थापना. सर्व श्री नित्यानन्द भट्ट, डी.डी. पंत, जगदीश कापडी, के. एन. उनियाल, ललित किशोर पांडे, बीर सिंह ठाकुर, हुकम सिंह पंवार, इन्द्रमणि बडोनी और देवेन्द्र सनवाल ने भाग लिया. सम्मेलन में यह राय बनी कि जब तक उत्तराखण्ड के लोग राजनीतिक संगठन के रूप एकजुट नहीं हो जाते, तब तक उत्तराखण्ड राज्य नहीं बन सकता अर्थात उनका शोषण जारी रहेगा. इसकी परिणिति उत्तराखण्ड क्रांति दल की स्थापना में हुई.
१९८०: उत्तराखण्ड क्रांति दल ने घोषणा की कि उत्तराखण्ड भारतीय संघ का एक शोषण विहीन, वर्ग विहीनऔर धर्म निरपेक्ष राज्य होगा.
१९८२: प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने मई में बद्रीनाथ मे उत्तराखण्ड क्रांति दल के प्रतिनिधि मंडल के साथ ४५ मिनट तक बातचीत की.
१९८३: २० जून को राजधानी दिल्ली में चौधरी चरण सिंह ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि उत्तराखण्ड राज्य की मांग राष्ट्र हित में नही है.
१९८४: भा.क.पा. की सहयोगी छात्र संगठन, आल इन्डिया स्टूडेंट्स फ़ैडरेशन ने सितम्बर, अक्टूबर में पर्वतीय राज्य के मांग को लेकर गढवाल क्षेत्र मे ९०० कि.मी. लम्बी साईकिल यात्रा की. २३ अप्रैल को नैनीताल में उक्रांद ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नैनीताल आगमन पर पृथक राज्य के समर्थन में प्रदर्शन किया.
१९८७: अटल बिहारी वाजपेयी, भा.ज.पा. अध्यक्ष ने, उत्तराखण्ड राज्य मांग को पृथकतावादी नाम दिया. ९ अगस्त को बोट क्लब पर अखिल भारतीय प्रवासी उक्रांद द्वारा सांकेतिक भूख हडताल और प्रधानमंत्री को ग्यापन दिया. इसी दिन आल इन्डिया मुस्लिम यूथ कांन्वेन्सन ने उत्तराखण्ड आन्दोलन को समर्थन दिया.
२३ नबम्बर को युवा नेता धीरेन्द्र प्रताप भदोला ने लोकसभा मे दर्शक दीर्घा में उत्तरखण्ड राज्य निर्माण के समर्थन में नारेबाजी की.
१९८८: २३ फ़रवरी : राज्य आन्दोलन के दूसरे चरण में उक्रांद द्वारा असहयोग आन्दोलन एवम गिरफ़्तारियां दी.
२१ जून: अल्मोडा में ’नये भारत में नया उत्तराखण्ड’ नारे के साथ ’उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ का गठन.
२३ अक्टूबर: जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम, नई दिल्ली में हिमालयन कार रैली का उत्तराखण्ड समर्थकों द्वारा विरोध. पुलिस द्वारा लाठी चार्ज.
१७ नबम्बर: पिथौरागढ़ मे नारायण आश्रम से देहारादून तक पैदल यात्रा.
१९८९: मु.मं. मुलायम सिह यादव द्वारा उत्तराखण्ड को उ.प्र. का ताज बता कर अलग राज्य बनाने से साफ़ इन्कार.
१९९०: १० अप्रैल: बोट क्लब पर उत्तरांचल प्रदेश संघर्ष समिति के तत्वाधान में भा.ज.पा. ने रैली आयोजित की.
१९९१: ११ मार्च: मुलायम सिंह यादव ने उत्तराखण्ड राज्य मांग को पुन: खारिज किया.
१९९१: ३० अगस्त: कांग्रेस नेताओं ने "वृहद उत्तराखण्ड" राज्य बनाने की मांग की.
१९९१: उ.प्र. भा.ज.पा. सरकार द्वारा प्रथक राज्य संबंधी प्रस्ताव संस्तुति के साथ केन्द्र सरकार के पास भेजा. भा.ज.पा. ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी पृथक राज्य का वायदा किया.
3rd week of December, 1991:During his visit to Haldwani - Nainital, Shri N.D. Tiwari rejected the demand for a separate State in NATIONAL INTEREST

भारतीय क्ष्रमजीवी पत्रकार संघ के उत्तर प्रदेश सम्मेलन मे उत्तराखण्ड राज्य की मांग का समर्थन किया गया. National Movement for States Re-organisation Demand Committee की स्थापना के लिये आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन की समाप्ति पर २५ अप्रैल को नई दिल्ली में संसद सदस्य डा० जयन्त रैंगती ने कहा "छोटे और कमजोर समूहों को राजनैतिक सत्ता में भागीदार बनाने का काम कभी पूरा नहीं किया गया." कल्याण सिंह सरकार ने केन्द्र सरकार को याद दिलाया कि उत्तारांचल राज्य की मांग स्वीकार न किये जाने के कारण पर्वतीय क्षेत्र की जनता में असंतोष पनप रहा है और अलगाव वाद की भावना घर करती जा रही है.
मार्च १९९२: हल्द्वानी में, नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखण्ड राज्य का पुन: बिरोध किया.
27th February, UTTARAKHAND BANDH called by "Mukti Morcha"
April 30, 1993: Jantar Mantar : Rally organised by "Uttaranchal Pradesh Sangharsh Samiti"
6th May, 1993: New Delhi: ALL PARTY MEETING was held in which various senior leaders participated.
१९९३: ५ अगस्त को लोक सभा में उत्तराखण्ड राज्य के मुद्दे पर मतदान. ९८ सदस्यों ने पक्ष में व १५२ ने विपक्ष में मतदान किया.
१९९३: २३ नबम्बर: आंदोलन को नई दिशा देने के लोये दिल्ली व लखनऊ की सरकारों पर ब्यापक जन दबाव बनाने के लिये "उत्तराखण्ड जनमोर्चा" का गठन नई दिल्ली में. इसके प्रमुख आंदोलनकारी - जगदीश नेगी, देब सिंह रावत, राजपाल बिष्ट व बी. डी. थपलियाल आदि थे.
१९९४: २४ अप्रैल: दिल्ली के पूर्व निगमायुक्त बहादुर राम टम्टा के नेत्रत्व में रामलीला मैदान से संसद मार्ग थाने तक बिराट प्रदर्शन.
१९९४: २१ जून: तात्कालिक मु.मं. मुलायम सिंह की सरकार ने उत्तराखण्ड राज्य गठन हेतु "रमाशंकर कौशिक" की अगुवाई में एक उपसमिति का गठन किया. इस समिति ने आठ पर्वतीय जनपदों को किला कर एक प्रथक राज्य ’उत्तराखण्ड’ बनाने के लिये ३५६ प्रष्ठों की एक एतिहासिक रिपोर्ट सरकार को सौंपी. इसमें राजधानी ’गैरसैंण’ बनाने की प्रबल संस्तुति की गई.
१७ जून, १९९४: मुलायम सरकार ने मण्डल कमीशन की रिपोर्ट शिक्षण संस्थानों में लागू करने की अधिसूचना जारी की जिससे उत्तराखण्ड में राजनैतिक भूचाल आ गया और उत्तराखण्ड राज्य की मांग को नया जीवन प्रदान किया.
२२ जून, १९९४: मुलायम सरकार ने उत्तराखण्ड के लिये अतिरिक्त मुख्य सचिव नियुक्त करने की घोषणा की.
११ जुलाई, १९९४: पौडी में उक्रांद का जोरदार प्रदर्शन - ७९१ लोगों ने गिरफ़्तारी दी.
२ अगस्त, १९९४: पौडी में, वयोवृद्द नेता मा० इन्द्रमणि बडोनी के नेतृत्व में आमरण अनशन प्रारम्भ.
७,८, एवम ९ अगस्त, १९९४ : पुलिस का लाठी चार्ज. पूरे उत्तराखण्ड में प्रखर राज्य जनांदोलन का बिगुल बजा.
१० अगस्त, १९९४: श्रीनगर में उत्तराखण्ड छात्र संघर्ष समिति का गठन.
१६ अगस्त, १९९४: उत्तराखण्ड राज्य के लिये संसद की चौखट, जंतर मंतर पर उत्तराखण्ड आंदोलनकारी संगठनों का ऎतिहासिक धरना प्रारम्भ हुआ जो उत्तराखण्ड आंदोलन संचालन समिति व बाद में उत्तराखण्ड जनता संघर्ष मोर्चा के नाम से बिख्यात हुआ. दिल्ली,हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के तमाम आंदोलनकारी संगठन इससे जुड गये. यह इस आन्दोलन का एक केन्द्रबिन्दु बन गया जहां पर दिन रात निरन्तर आन्दोलन जारी रहा.
२४ अगस्त, १९९४: विधानसभा में दूसरी बार अलग राज्य का प्रस्ताव पारित. दो छात्रों, श्री मोहन पाठक और श्री मनमोहन तिवारी ने संसद में नारेबाजी करते हुये उत्तराखण्ड राज्य के समर्थन में छलांग लगाई.
३० अगस्त, १९९४: दिल्ली में पूरे देश के आये हुये हजारों उत्तराखण्डियों ने प्रचण्ड प्रदर्शन किया. प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोडे गये.
१ सितम्बर, १९९४: उत्तराखण्ड आंदोलन के इतिहास में एक काला दिन..खटीमा मे उत्तराखण्डी आंदोलनकारियों पर पुलिस ने शर्मनाक ढंग से फ़ायरिंग की. आठ आंदोलनकारियों की मौत हल्द्वानी व खटीमा में कर्फ़्यू......
२ सितम्बर, १९९४:मसूरी में उत्तराखण्ड आंदोलनकारियों पर कहर.पुलिस उप-अधीक्षक सहित आठ आंदोलनकारी शहीद.इसके बिरोध में दिल्ली सहित पूरे देश में भारी आक्रोश.. और प्रदर्शन. पौड़ी में छात्रों की ऎतिहासिक रैली मे हजारों लोगों ने भाग लिया.
८ सितम्बर, १९९४:छात्रों के आव्हान पर ४८ घन्टे का उत्तराखण्ड बन्द.
२० सितम्बर, १९९४:पर्वतीय कर्मचारी शिक्षक संगठन के बैनर तले राज्य कर्मचारी बेमियादी हडताल पर गये.
१ अक्टूबर, १९९४ यह दिन उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों के लिये मनहूस दिन रहा. २ अक्टूबर को लालकिला, दिल्ली में आयोजित होने वाली रैली मे लाखों उत्तराखन्डी शान्तिपूर्वक दिल्ली की ओर बढ रहे थे कि उ.प्र. के सरकार को किसी शैतान ने अपने बस में कर लिया. मुजफ़्फ़रनगर में पुलिस ने आन्दोलनकारियों का दमन करने के लिये भयंकर नरसंहार किया. महिलाओं के साथ अभद्रता की. यहां पर आठ आन्दोलनकारी शहीद हुये.

जैसे कि स्वाभाविक है,मुजफ़्फ़रनगर में पुलिस की बर्बरता से समूचे उत्तराखण्ड में व्यापक आक्रोश फ़ैल गया. इस कुकृत्य के बिरोध में लोग सड्कों पर उतर आये. किन्तु अपनी घिनौनी करतूत पर शर्मिन्दा होने होने की बजाय, शैतानी प्रशासन ने फ़िर ताण्ड्व किया. देहरादून व कोटद्वार मे दो-दो और नैनीताल मे एक आंदोलनकारी पुन: शहीद हुये.
५ अक्टूबर, १९९४:इलाहाबाद हाइकोर्ट ने पर्वतीय शिक्षण संस्थाओं में लागू २७% आरक्षण पर रोक लगाई.जहां समूचा उत्तराखण्ड मुलायम व नरसिंहा राव सरकारों के दमन में पिस रहा था, उक्रांद के नेता आपसी कलह में उलझे हुये थे जिसकी परिणिति हुई उक्रांद का बिभाजन.मुजफ़्फ़रनगर गोली काण्ड के सी.बी.आइ. से जांच के आदेश.इसी दिन पुलिस की गोली से देहरादून में एक महिला आंदोलनकारी शहीद. महिलायें इस आंदोलन में बढ चढ कर भाग ले रहीं थी.
१३ अक्टूबर, १९९४: प्रचण्ड आंदोलन के चलते, देहरादून में कर्फ़्यू लगा दिया गया. यही पर एक और आंदोलनकारी ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिये.
अक्टूबर १९९४ में, सतपाल महाराज ने ’संयुक्त संघर्ष समिति’ के संरक्षक के रूप में बद्रीनाथ से नारसन तक जनजागरण पदयात्रा की.
७ दिसम्बर, १९९४ तो श्री भुवनचन्द्र खन्ड्यूरी के नेत्रत्व में दिल्ली के लालकिला मैदान पर भा.ज.पा. की बिशाल रैली आयोजित की इस रैली में श्री अटल, आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती,कल्याण सिंह जैसे नेता उपस्थित थे.
८ - २३ दिसम्बर, १९९४:’उत्तराखण्ड आंदोलन संचालन समिति’ के आव्हान पर, संसद के शीतकालीन शत्र के दौरान जेल भरो आंदोलन चलाया गया. इसमें कुल ४,६१२ लोगों ने गिरफ़्तारी दी.
२२ दिसम्बर, १९९४:उत्तराखण्ड में हड्ताली कर्मचारी "काम के साथ संघर्ष" का नारा देते हुये काम पर लौटे. छात्रों ने "पढाई के साथ लडाई" का नारा बुलन्द किया, स्कूल और कालेज भी खुले.
२५ फ़रवरी, १९९५: इस दिन उत्तराखण्ड के प्रमुख आंदोलनकारी संगठनों का दो दिवसीय "प्रथम अखिलभारतीय सम्मेलन" दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू बि.बि. के सिटी सेंटर में डा० कर्ण सिंह के उदघाटन संबोधन के साथ शुरू हुवा.
२३ मार्च, १९९५: शहीद भगत सिंह आजाद के शहादत दिवस पर, ले.जन. गजेन्द्र सिंह रावत के नेत्रत्व में पूर्व सैन्य अधिकारियों व पूर्व सैनिकों ने अन्य आंदोलनकारियौं के साथ मिलकर बिशाल प्रदर्शन किया. गौरतलब है कि इस प्रदर्शन में १३ पूर्व जनरल शामिल थे.
१७ - २३ अगस्त, १९९५:केन्द्र सरकार की कान पर जूं न रेंगती देख, उत्तराखण्ड जन मोर्चा व अन्य आंदोलनकारी संगठनों के संयुक्त आव्हान पर पुन: "जेल भरो" आंदोलन शुरू किया इसमें भारी संख्या में लोगों ने गिरफ़्तारी दी. प्रशासन को अस्थाई जेल के ब्यवस्था करनी पढी. चार दिन बाद आंदोलनकारियों को रिहा कर दिया गया.
३० दिसम्बर, १९९५:मुजफ़्फ़रनगर काण्ड के अपराधिओं को तत्काल दण्डित करने की मांग को लेकर उत्तराखण्ड की सैकडों महिलाओं ने होम मिनिस्टर के निवास पर प्रचण्ड प्रदर्शन किया.
८ अक्तूबर, १९९५:स्थान : श्रीयंत्र टापू (श्रीनगर गढ्वाल)अलकनंदा की जलधारा के बीच स्थित श्रीयंत्र टापू पर उत्तराखण्ड क्रान्ति दल (डंगवाल) के आंदोलनकारियों ने प्रथक उत्तराखण्ड राज्य के लिये ’आमरण अनशन’ शुरू किया.
५ नवम्बर, १९९५:स्थान : वही.पुलिस ने आंदोलनकारियों के दमन का कुचक्र फ़िर चला. दो आंदोलनकारियों को अलकनंदा की तेज जलधारा में बहा देने का कलंक पुलिस के माथे लगा. श्री डंगवाल सहित अनेक आंदोलनकारियों को सहारनपुर जेल भेज दिया गया.आन्दोलनकारी किसी भी प्रकार से हार मानने को तैयार नहीं थे.
१२ अक्तूबर, १९९५:उत्तराखण्ड क्रान्ति दल (डंगवाल) के नेता श्री दिवाकर भट्ट ने खैट पर्वत (जिला टिहरी) पर पुन: आमरण अनसन शुरु किया.और२१ दिसम्बर, १९९५ आज, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल, श्री मोतीलाल बोरा, ने उत्तराखण्ड क्रान्ति दल (डंगवाल) को वार्ता पर बुलाया.
१२ जनवरी, १९९६:खैट पर्वत पर अनशन पर बैठै नेता, श्री दिवाकर भट्ट केन्द्र सरकार के आमंत्रण पर अन्य साथियों सहित दिल्ली में अनशन पर बैठै अन्य आंदोलनकारियों के पास (जंतर मंतर) पहुचे. यहां ग्रिह राज्य़मंत्री एवम बिदेश राज्य मंत्री ने आंदोलनकारियों से अनसन खत्म करने का अनुरोध किया.तब इसके बाद:
१९-२२ जनवरी, १९९६ भारत सरकार और आंदोलनकारियों के बीच आधिकारिक रूप से पहली वार्ता शुरू हुयी. इस वार्ता में मुख्य रूप से उपस्थित नेता इस प्रकार हैं:सर्वश्री: दिवाकर भट्ट, पूरण सिंह डंगवाल, मेजर जनरल शैलेन्द्र राज, पी. सी. थपलियाल, प्रकाश सुमन ध्यानी, अवतार रावत, देवसिंह रावत, राजेन्द्र शाह, श्रीमती कौशल्या डबराल के साथ साथ प्रख्यात पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा, एस.के. शर्मा एवम छात्र नेता .
२६ जनवरी, १९९६: (गणतंत्र दिवस)स्थान : विजय चौक (इस स्थान के गणतंत्र दिवस परेड आरम्भ होती है)उत्तराखण्ड संयुक्त महिला संघर्ष समिति की आंदोलनकारियों ने ४४ महिलाओं व १८ नवयुवकों के लेकर बी.आई.पी. गैलरी (विजय चौक) में उत्तराखण्ड राज्य के समर्थन में जोरदार नारेबाजी की. श्रीमती उषा नेगी को वहा पर गिरफ़्तार किया गया.
९ फ़रवरी, १९९६इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तराखण्ड आंदोलनकारियों पर मुजफ़्फ़रनगर एवम अन्य स्थानों पर दमन के आरोपों के लिये उत्तरप्रदेश सरकार व केन्द्र सरकार को कटघरे में रखते हुये इसे यहूदियों पर नाजियों द्वारा किये गये अत्याचार के बराबर बताया.
१५ अगस्त्, १९९६:प्रधानमंत्री एच. डी. देवागौडा ने लाल किले के प्रचीर से उत्तराखण्ड राज्य गठन का संकल्प ब्यक्त किया.
१५ अगस्त्, १९९७:प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल ने भी लाल किले के प्रचीर से उत्तराखण्ड राज्य गठन का संकल्प दोहराया.
१९९८ में, अटल बिहारी के नेतृत्त्व वाली भा.ज.पा. की गठ्बंधन सरकार ने पहली बार राष्ट्रपति के माध्यम से उत्तरप्रदेश सरकार को उत्तराखण्ड राज्य बिधेयक प्रेषित किया.इस बीच, दिल्ली में जन्तर मन्तर पर आंदोलनकारियों का धरना जारी था.
९ अगस्त, १९९८:भारी पुलिस बल ने जन्तर मन्तर पर आंदोलनकारियों पर धावा बोल दिया और आन्दोलनकारियों को तितर-बितर कर दिया. परिणामस्वरूप धरना स्थल वहा से मंदिर मार्ग में स्थानतरित हो गया. बाद में पुन: जन्तर मन्तर पर आगया.
१९९९कांग्रेस नेता, हरीश रावत भी संघर्ष में कूदे.
27 July, 2000:Uttar Pradesh Reorganisation Bill, 2000 presented in Lok Sabha.
1 August, 2000:LOK SABHA passed the Bill.
10 August, 2000Rajya Sabha Passed the Bill.
१५ अगस्त, २००० लालकिले के प्रचीर से प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी ने उत्तराखण्ड राज्य गठन के अपने वादे को पूरा करने की घोषणा की.
१६ अगस्त, २०००स्थान : जन्तर मन्तर, दिल्ली.यहां पर उत्तराखण्ड जनता संघर्ष मोर्चा के श्री देब सिंह रावत के उत्तराखण्ड राज्य के गठन की मांग को लेकर ६ वर्षों (१९९४-२०००) के लगातार धरने का हर्षोल्लास के साथ समापन करने हेतु सभी आंदोलनकारियों ने संगठन व दलों की सी्माओं को तोडते हुये समारोह में भाग लिया. इस अवसर पर यहां आने वालओं में सर्वश्री बची सिंह रावत, सतपाल महाराज, डा० हरक सिंह रावत, एस.के. शर्मा, अवतार रावत, रणजीत सिंह पंवार, प्रताप रावत नरेन्द्र भाकुनी व अन्य शामिल थे.
२० अगस्त, २००० भारत के राष्ट्रपति द्वारा राज्य गठन बिधेयक को मंजूरी दे दी गई.

उत्तराखण्ड राज्य गठन जन-आंदोलन में भाग लेने वाले प्रमुख संगठन:

१. उत्तराखण्ड क्रांति दल (उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर बना पहला क्षेत्रीय राजनैतिक दल.प्रमुख पदाधिकारी: स्व.श्री. इन्द्रमणि बडोनी, श्री काशी सिंह ऎरी, दिवाकर भट्ट व पूरण सिंह डंगवाल आदि. २.उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति (उ.क्रा.द. भी इसमें शामिल था.प्रमुख पदाधिकारी: श्री सतपाल महाराज (संरक्षक) व श्री धीरेन्द्र प्रताप (समन्वयक)
३. उत्तराखण्ड जनता संघर्ष मोर्चा (संसद के चौखट पर निरन्तर ६ वर्षों तक धरना देने वाला संगठनप्रमुख पदाधिकारी: श्री अवतार सिंह रावत, देव सिंह रावत, राजेन्द्र शाह, डा० हरक सिंह रावत, प्रकाश सुमन ध्यानी, राजेन्द्र सिंह रावत, खुशहाल सिंह बिष्ट, जगदीश भट्ट, देशबंधु बिष्ट, रवीन्द्र बर्त्वाल, बिनोद नीगी और सीता पटवाल इत्यादि.
४. उत्तराखण्ड संयुक्त छात्र संघर्ष समितिप्रमुख पदाधिकारी: डा० मेहता, डा० एस. पी. सती (गढ्वाल बि.बि.), गिरिजा पाठक (कुमाऊ बि.बि.) एवम राजपाल सिंह बिष्ट (दिल्ली बि.बि.)
५. उत्तराखण्ड जनसंघर्ष वाहिनीप्रमुख पदाधिकारी: डा० शमशेर सिंह बिष्ट, पी. सी. तिवारी, प्रभात ध्यानी आदि.
६. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी. प्रमुख पदाधिकारी: श्री नारायणदत्त सुन्द्रियाल
७. कम्युनिस्ट पार्टी (मा.ले.)प्रमुख पदाधिकारी: श्री राजा बहुगुणा.
८. उत्तराखण्ड महिला मंचप्रमुख पदाधिकारी: कमला पंत, धनेश्वरी तोमर, लक्ष्मी गुसांई, धनेश्वरी घिल्डियाल आदि
९. उत्तराखण्ड महिला संयुक्त संघर्ष समितिप्रमुख पदाधिकारी: कौशल्या डबराल, उषा नेगी, आशा बहुगुणा, कमला भन्डारी आदि.
१०. उत्तराखण्ड पूर्व सैनिक संगठनप्रमुख पदाधिकारी: ले.जन. जगमोहन सिंह रावत, मे. जन. शैलेन्द्र राज बहुगुणा, पी. सी. थपलियाल, कर्नल गंगा सिंह रावत आदि.
११. उत्तराखण्ड कर्मचारी एवम शिक्षक संगठनप्रमुख पदाधिकारी: श्री दौलत राम सेमवाल, श्री खर्कवाल आदि.
१२. उत्तराखण्ड महासभाप्रमुख पदाधिकारी: श्री हरिपाल रावत, अनिल पंत, करन बुटोला आदि.
१३. उत्तराखण्ड जनमोर्चाप्रमुख पदाधिकारी: श्री जगदीश नेगी, बीना बिष्ट, हर्षबर्धन. श्री खंड्यूरी, राम भरोसे, एड्वोकेट वी. एस. बोरा, श्री ढौंडियाल, ए.एस.एन. सिलियाल, केवलानन्द जोशी आदि.
१४. उत्तराखण्ड राज्य लोक मंचप्रमुख पदाधिकारी: श्री उदय राम ढौंडियाल, ब्रिजमोहन उप्रेती आदि.
१५. हिमनद संघप्रमुख पदाधिकारी: श्री बिरेन्द्र जुयाल
१६. उत्तराखण्ड मानवाधिकार समितिप्रमुख पदाधिकारी: श्री एस. के शर्मा.
१७. उत्तराखण्ड अधिवक्ता संघ.







सभी आन्दोलनकारियों को हार्दिक धन्यवाद एवं शहीदों को शत-शत नमन

Uttarakhand Aandolan by Narendra Singh Negi

उत्तराखण्ड आन्दोलन को नेगी जी ने बहुत सुन्दर भावनाओं के साथ उकेरा है...धन्यवाद

उत्तराखण्ड का इतिहास


स्कन्द पुराण में हिमालय को पॉच भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त किया गया है:-
खण्डाः पत्र्च हिमालयस्य कथिताः नैपालकूमाँचंलौ ।
केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः ।।

अर्थात हिमालय क्षेत्र में नेपाल ,कुर्मांचल , केदारखण्ड़ (गढवाल), जालन्धर ( हिमाचल प्रदेश ) और सुरम्य काश्मीर पॉच खण्ड है।
पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरीय हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी ( बदीनाथ से ऊपर) बताई जाती है।पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि -मुनि तप व साधना करते थे।
अंग्रेज इतिहास कारों के अनुसार हुण, सकास, नाग खश आदि जातियां भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। किन्तु पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है। इस क्षेत्र को देव-भूमि व तपोभूमि माना गया है।मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊं नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ।कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन 1790 तक रहा। सन 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊं पर आक्रमण कर कुमाऊ राज्य को अपने आधीन कर दिया। गोरखाओं का कुमाऊं पर सन 1790 से 1815 तक शासन रहा। सन 1815 में अंग्रजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापिस चली गई किन्तु अंग्रजों ने कुमाऊं का शासन चन्द राजाओं को न देकर कुमाऊं को ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के अधीन कर किया। इस प्रकार कुमाऊं पर अंग्रेजो का शासन 1815 से प्रारम्भ हुआ।ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढों( किले ) में विभक्त था। इन गढों के अलग राजा थे और राजाओं का अपने-अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र पर साम्राज्य था।
इतिहासकारों के अनुसार पंवार वंश के राजा ने इन गढो को अपने अधीनकर एकीकृत गढवाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढवाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन 1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने गढवाल राज्य पर आक्रमण कर गढवाल राज्य को अपने अधीन कर लिया ।महाराजा गढवाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रजो से सहायता मांगी । अग्रेज सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन 1815 में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया । किन्तु गढवाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रजो ने सम्पूर्ण गढवाल राज्य गढवाल को न सौप कर अलकनन्दा मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में शामिल कर गढवाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले ( वर्तमान उत्तरकाशी सहित ) का भू-भाग वापिस किया।गढवाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और मिलंगना के संगम पर छोटा सा गॉव था, अपनी राजधानी स्थापित की। कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्र नगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की । सन1815 से देहरादून व पौडी गढवाल ( वर्तमान चमोली जिलो व रूद्र प्रयाग जिले की अगस्तमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजो के अधीन व टिहरी गढवाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।भारतीय गणतंन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त 1949 में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्तप्रान्त का एक जिला घोषित किया गया। भारत व चीन युद्व की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन 1960 में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ का गठन किया गया ।
एक नये राज्य के रुप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप उत्तरांचल की स्थापना दि० 9 नवम्बर 2000 को हुई। सन 1969 तक देहरादून को छोडकर उत्तराखण्ड के सभी जिले कुमाऊं कमिश्नरी के अधीन थे। सन 1969 में गढवाल कमिश्नरी की स्थापना की गई जिसका मुख्यालय पौडी बनाया गया । सन 1975 में देहरादून जिले को जो मेरठ कमिश्नरी में शामिल था, गढवाल मण्डल में शामिल करने के उपरान्त गढवाल मण्डल में जिलों की संख्या पॉच हो गयी थी जबकि कुमाऊं मण्डल में नैनीताल , अल्मोडा , पिथौरागढ , तीन जिले शामिल थे। सन 1994 में उधमसिह नगर और सन 1997 में रूद्रप्रयाग , चम्पावत व बागेश्वर जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व गढवाल और कुमाऊ मण्डलों में क्रमश छः छः जिले शामिल थे। उत्तराखण्ड राज्य में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किये जाने पर राज्य के गठन उपरान्त गढवाल मण्ढल में सात और कुमाऊं मण्डल में छः जिले शामिल हैं। दिनांक 01 जनवरी 2007 से राज्य का नाम उत्तरांचल से बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया है। राज्‍य का स्‍थापना दिवस 9 नवम्‍बर को मनाया जाता है।

Tuesday, December 18, 2007

वन्दन मातृभूमि उत्तराखण्ड का


















जमीं है मां मेरी बस यही है कहना
उसके लिए जीना, उसी के लिए है मरना।
चोट पे जहां धूल भी मरहम बन जाती
प्यासी नदीयां भी जहां प्यास बुझाती।
राहें भी हैं मदमस्त सर्प सी बलखाती
हवाएं भी ममतामयी लोरी गाकर सुनाती।
ना मिलेगा उस सा प्यार बस यही है कहना।
उसके लिए जीना, उसी के लिए है मरना।
कहां मिलेगा वैसा हरियाली का आंचल
कहां मिलेगा वैसा वो संतरंगी बादल।
हर कदम पर जहां है पर्वतों की माला
देवभूमि, उतराखंड जो है कहलाता।
जिए भी तो कैसे उस पहचान के बिना
उसके लिए जीना, उसी के लिए है मरना।
ख्वाबों की तलाश में कितनी दूर आ गए
अपनी जमीं को ही रोती छोड़ आ गए।
उसके कर्ज़ को कहीं हम भूल ना जाएं
चलो उस मां का थोड़ा सा ऋण चुकाएं
खुशहाली के रंग में उसे फिर है आज रंगना
उसके लिए जीना, उसी के लिए है मरना।

जय उत्तराखण्ड!

उत्तराखण्ड आन्दोलन की कवितायें

उत्तराखण्ड आन्दोलन का गिर्दा द्वारा लिखित कविता ! (बागस्यरौक गीत)
सरजू-गुमती संगम में गंगजली उठूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो '
भुलु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो उतरैणिक कौतीक हिटो वै फैसला करुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूंलो
'बैणी' उत्तराखण्ड ल्हयूंलो
बडी महिमा बास्यरै की के दिनूँ सबूतऐलघातै उतरैणि आब यो अलख जगूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'भुलु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
धन -मयेडी छाति उनरी,धन त्यारा उँ लाल, बलिदानै की जोत जगै ढोलि गै जो उज्याल खटीमा,मंसुरि,मुजफ्फर कैं हम के भुली जुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
'चेली'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो कस हो लो उत्तराखण्ड,कास हमारा नेता, कास ह्वाला पधान गौं का,कसि होली ब्यस्था
जडि़-कंजडि़ उखेलि भली कैं , पुरि बहस करुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो वि कैं मनकसो बैंणूलोबैंणी फाँसी उमर नि माजैलि दिलिपना कढ़ाई
रम,रैफल, ल्येफ्ट-रैट कसि हुँछौ बतूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'ज्वानो' उत्तराखण्ड ल्हयूँलो मैंसन हूँ घर-कुडि़ हौ,भैंसल हूँ खाल, गोरु-बाछन हूँ गोचर ही,चाड़-प्वाथन हूँ डाल
धूर-जगल फूल फलो यस मुलुक बैंणूलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'परु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
पांणिक जागि पांणि एजौ,बल्फ मे उज्याल, दुख बिमारी में मिली जो दवाई-अस्पताल सबनै हूँ बराबरी हौ उसनै है बतूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
सांच न मराल् झुरी-झुरी जाँ झुट नि डौंरी पाला, सि, लाकश़ बजरी चोर जौं नि फाँरी पाला
जैदिन जौल यस नी है जो हम लडते रुंलो उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
लुछालुछ कछेरि मे नि हौ, ब्लौकन में लूट, मरी भैंसा का कान काटि खाँणकि न हौ छूट
कुकरी-गासैकि नियम नि हौ यस पनत कँरुलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
जात-पात नान्-ठुल को नी होलो सवाल, सबै उत्तराखण्डी भया हिमाला का लाल
ये धरती सबै की छू सबै यती रुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
यस मुलूक वणै आपुँणो उनन कैं देखुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो

उठा गढ़वालियो ! (सत्य नारायण रतूणी)

अब त समय यो सेण को नी छ.तजा यो मोह निद्रा कू. अजौ तैं जो पडी़ ही छ
अलो! आपण मुलूक की यों छुटावा दीर्घ निद्रा कूँ,सिरा का तुम इनी गहैरी खडा़ माँ जीन गिरा यालै
आहे! तुम भैर त देखा, कभी से लोक जाग्याँ छन,जरा सी आँख त खोला,कनो अब घाम चमक्यूँ छपुराणा वीर व ऋषियों का भला वतान्त कू देखा,छयाई उँ बडौ की ही सभी सन्तान तुम भी त
स्वदेशी गीत कू एक दम गुँजावा स्वर्ग तैं भायों,भला छौंरु कसालू की कभी तुम कू कमी नी छ
बजावा ढोल रणसिंघा,सजावा थौल कू सारा,दिखावा देश वीरत्व भरी पूरी सभा बीच
उठाला देश का देवतौं साणी,बांका भड़ कू भी,पुकारा जोर से भ्यौ घणा मंडाण का बीचकरा प्यारो !
करा तुम त लगा उदोग माँ भायों,किलै तुम सुस्त सा बैठयों छयाई औरक्या नी छ
करा संकल्प कू सच्चा, भरा अब जोश दिल माँ तुम,अखाडा़ माँ बणा तुम सिंह,गर्जा देश का बीच
बजावा सत्य को डंका सबू का द्धार पर जैकभगवा दुःख दारिद्रय करा शिक्षा भली जो छ
अगर चाहयैंत हवै सकदैं धनी विद्धान बलधारी,भली सरकार की छाया मिंजे तुम कू कमी क्या छ
जागो मेरा लाल

उत्तराखण्ड..........लडाई (लोकेश नवानी)

जो लोग उस ओर अपनी बंदूकें पोछ रहे है,
बूट उतारकर धूप सैकनें में मस्त,
शान्ति का लिवास पहने ठिठोली करते हुए
तुम्हारे जेहन का डर दूर कर रहे हैं
ताकि तुम सोये रहो, बजाते रहो चैन की बंसी,
असल में तुम्हारे दिमाग निहत्थे किये जा रहे है-लगातार...
इसलिए मत सोने दो दिमाग को,डटे रहो मोर्चे पर,
होने वाले हर हमले के खिलाफ, वजूद के नस्तानाबूत हो जाने के बजाय,
चुनौती दो, उसकी अस्मिता को भी, लडा़ई को चुपचाप उनके हाथो में सौंप देने से
पहले खबरदार रहो निर्णायक लडाई लडने के लिए, लड़ाई होकर रहेगी

चलना भी आता है पहाडो़ को

पहाड़ केवल , धूप के दरिया नही है
न होते है केवल, बुरांस के फूल
और शाल वक्षों का देश
बेकल आनन्द से भर देने वाले केवल दश्य ही न हीं है पहाड़
न हैं पहाड़ सिर्फ नदियों के आदि स्त्रोत पहाडो़ में बसते है लोग नितान्त एकान्त में
जंगल के नितम्ब से मिकलने वाली तंग तलहटियों के मध्य,
था उत्तेग शिखरो की काली चट्टानो के आसपास,
हाथो में चुनी झोपडियों में पहाडो़ को इतना ठंडा मत समझो
सुलगते हैं भीतर ही भीतर, ज्वालामुखी की तरह, वेशक
मौसम बनाते है इन्हे, सहनशील और धैर्यवान
मत समझो पहाडो़ को बोलना नही आता पहचाने जाते है
पहाड़ यहां बसने वाले लोगो से इसलिए
अब पहाड़ अपने लोगों की मुकम्मल पहचान के लिए लुढ़कना चाहते है,
मैदान की ओर
मत समझोमत समझो पहाडों को उठकर चलना नही आता, चलना भी आता है पहाडों को

UTTARAKHAND KRANTI DAL : उत्तराखण्ड की आवाज






Uttarakhand Kranti Dal, the regional party of the Uttarakhand Himalayas. This site will endeavour to provide news and information about the UKD's political campaigns as it fights for the future of Uttarakhand.
Since its formation in 1979, the UKD has been fighting for change as a grassroots political vehicle of the people. As the first party to take up the statehood issue, the UKD laboured for many years, laying the ground work for what would emerge as a successful movement for all-around development for the long neglected Himalayan region. However, enormous work remains, as the unfulfilled expectations of the Uttarakhandi people call out for the continuation of a regional voice in the politics of the state dominated by national parties and their national priorities.
We have long stressed that only through a new Uttarakhand can a new India be constructed with a renewal of democracy and the human and social rights of its diverse citizens.


About the Party



The Uttarakhand Kranti Dal was founded on 25 July, 1979, under the chairmanship of the then Vice-Chancellor of Kumaon University, Shri D.D. Pant.
In addition to leading the separate statehood movement by building a large and inclusive identity for the region's diverse peoples, the UKD has since focussed on social justice and balanced development for the Uttarakhand region of the Indian Himalayas.
In 1980, the Jaswant Singh Bisht opened the party's account by winning the UKD's first legislative assembly seat. In 1985, Kashi Singh Airi won in Pithoragarh, becoming the party's longest serving member, winning again in the new Uttaranchal state assembly elections of 2002.
In 1994, the party helped successfully steer a anti-reservation stir into a massive movement for a separate hill state, the only way to address the region's development issues specific to its rugged highland geography.
In 1999, Indramani Badoni, one of the original hunger strikers of 1994 and a long-time stalwart of the UKD breathed his last. The party pledged to take up his work as a tribute to his tireless efforts on behalf of the region.
In 2000, the state of "Uttaranchal" was created. While welcomed as a major victory by the people, the state's creation was only a partial success as the manner in which it was formed completely disregarded the movement that gave it birth.
In the post-statehood period, the UKD has continued to speak out for the rights of the average citizens of state, while pressing to complete the unfinished business of the Uttarakhand Andolan, including defending the state's social and cultural identity as embodied by its true name, Uttarakhand, locating its permanent capital at Gairsain, and fighting for greater grassroots democracy and the basic rights of Uttarakhandi people.


UTTARAKHAND


Bounded by Tibet to the North, Nepal to the East, the state of Himachal Pradesh to the West, and the plains of Uttar Pradesh state to the South, Uttarakhand was carved out of Uttar Pradesh as the state of “Uttaranchal” in 2000 as the 27th state of the Indian Union with Dehradun as its interim capital. Encompassing 13 districts, the state is geographically diverse, ranging from the fertile terai plains in the South to the trans Himalayan ranges marking its northern border.
The hilly section, traditionally known as Uttarakhand or Kedarkhand (“North Country” in Sanskrit and renamed as such in December 2006) and geographically described as the Central Himalayas, has occupied various spaces in the imagination of Indians and Westerners alike. Tourists and migrants have flocked to the hills for thousands of years, while the fresh mountain air and cooler climes led to the establishment of several hill stations during the British Raj. Known also as the abode of the gods or “Devbhumi”, Uttarakhand’s primary shrines of Badrinath and Kedarnath draw devotees of Vishnu and Shiva respectively from all over India. Moreover, the source of the Ganga, Yamuna, and other tributaries are found in the state’s extreme north, carving the deep valleys that have characterized much of the region’s rugged terrain.
Uttarakhand’s modern political and cultural identity dates to the medieval principalities of Garhwal in the West and Kumaon in the East. Garhwal was traditionally known as the land of “Garhs” or forts that were first brought under central authority in the 14th century. Kumaon kings also traced their lineage back to early middle ages. Despite centuries of prosperity and consolidation, the constant feuding of these two states and the encroachment of surrounding powers eventually weakened their kingdoms to the extent that they were overrun by the expansionist Gurkha Empire in 1791 and 1803 respectively. Although the Kumaon dynasty came to an end, the Garhwal dynasty was soon reestablished from Tehri as a subordinate state after the brief but bloody Anglo-Gurkha war in 1814-1815. The same war saw the incorporation of Eastern Garhwal and Kumaon into the British Northwestern, and later United Provinces.
By winning the rights over the territorial extent of the region, the British not only gained lucrative trade routes to Tibet, but also the rights over the enormous forest wealth of Uttarakhand. Recruitment into the armed forces from the region also began in earnest, with the Garhwal Rifles gaining international fame for their bravery during the First World War. However, both Garhwal and Kumaon soon joined in the general ferment of the independence struggle, focusing particularly on oppressive forest and forced labour laws. Meanwhile, the independence movement within the Tehri princely state successfully forced its merger with India in 1948.
The post-independence period saw many developments, including the closing of the Indo-Tibetan border due to the India-China War of 1962 and most notably the emergence of the Chipko environmental movement in the 1970s. Political and cultural marginalization within Uttar Pradesh eventually culminated into a mass movement for a separate hill state in 1994. Six years later, this “Uttarakhand Andolan” achieved partial success with the creation of the then named “Uttaranchal” yet balanced development for the highlands, the principal demand of this movement, continues to represent an uphill challenge.

Gandhi of Uttarakhand - Indramani Badoni


EVEN as the people of Uttarakhand celebrate victory of their long-drawn struggle, they are missing one person very lovingly. He is the tallest leader of the Uttarakhand movement, Indramani Badoni, who had died at his residence in Rishkesh (Uttarakhand) on 18 August, 1999, after prolonged illness.
A simple and unassuming person, Badoni became a symbol of hope for more than one crore Uttarakhandi people, living in several parts of the country and abroad, during the peak of Uttarakhand movement in 1994. A man of principles, he came to be called as Gandhi of Uttarakhand for leading a historical movement for the creation of Uttarakhand state which remained thoroughly nonviolent despite provocation from several quarters.
On 2nd August, 1994, he started an indefinite fast unto death at Pauri, headquarters of Garhwal division, to press for the demand of a separate state. On August 7, 1999, he was forcibly sent to the Meerut jail and later shifted to the AIIMS in New Delhi for treatment, where he was forcibly discharged. "The people of Uttarakhand must not feel defeated and keep on the flag of their cause flying high till they achieve their goal," he had said in his last message to the people whom he loved the most.
Ever since his political career, Badoni not only was among the pioneers who played a vital role in politically awakening the masses in Garhwal, but also tried to make them understand that their future lied in a separate state. Born in 1914 in the Akhaurhi village of Jakholi block of Tehri district (now in Rudraprayag district) in a modest family, Badoni passed his intermediate examination from Tehri and graduated from the DAV College in Dehradun in 1949. He was just 27 when his father passed away and burden of the whole family fell on his shoulders. Being eldest among the male children of his parents, he even had to raise a herd of goats to support his family and send one of his younger brothers to pursue higher studies in Ayurveda, a subject in which Badoni himself took a great interest. In 1971, he lost his mother also.
Soon after the CPI leader comrade PC Joshi espoused the cause of a separate state for the people of Uttarakhand during early 1950s, Badoni realized that the people in the hills were never given their due. He went to jail several times during the freedom struggle. The Congress being in the foreground of the struggle, Badoni had little choice but to join that party. It was only in the late Sixties that he lost faith in the Congress and came to the conclusion that the national parties only served the superficial objectives and they had nothing to do with the aspirations and hopes of the people in several parts of the country that were languishing for a long time.
A simple person but a political animal, Badoni fought Deoprayag assembly seat three times in 1967, 1969 and 1977. He contested the 1967 assembly election from Deoprayag as an independent candidate against the Congress party's official candidate and won. He fought the assembly election not because he was denied a Congress ticket, but because the then Congress stalwart HN Bahuguna had tried to convince him that no one can win an election minus a Congress ticket. It is believed that Bahuguna told Badoni that even a dog would win the election on the Congress ticket. This made Badoni furious and he decided to prove Bahuguna wrong.
Around the time he contested the Uttar Pradesh assembly election as an independent candidate in 1967, he restarted espousing the cause of a separate hill state comprising the mountainous districts of Uttar Pradesh. In 1971, he fought the Lok Sabha election on the same issue against erstwhile Raja of Tehri principality, Manabendra Shah. But the time was not ripe for the demand he ad raised. Larger sections of the Uttarakhand people used to see the Uttarakhand supporters as anti-nationals at that time. Consequently, the election result was on the expected lines and he lost the election to the erstwhile Raja.
In 1973, he was behind those who organized a massive rally in Bageshwar on the day of Makar Samkranti, where all participants pledged to take the Uttarakhand movement to its logical conclusion. He rejoined the Congress soon after and in 1969 contested the election on the Congress ticket winning again. In 1977, he fought as an independent and won the seat defeating the Janata Party candidate. He was the only candidate who could withstand the Janata Party tornado. After being vice chairman of the hill development corporation in 1980, he joined the UKD in the same year during party's Rishikesh convention and till death remained its most important leader.
His decision to switch over to the regional politics was prompted by the fact that he always believed that only a regional force could sincerely fight for the cause of Uttarakhand and regional aspirations hardly found an adequate place in the scheme of things of the national parties. Perhaps this was one reason which aggravated his disillusionment with the Congress. In 1989, he contested for the Lok Sabha from Tehri constituency on the UKD ticket and lost very narrowly (only about 1400 votes) to the Congress candidate Brahm Dutt.
Apart from the hullabaloo of politics, he was a fine dancer of Kedar nritya, a folk dance of Garhwal. In fact, in 1956, he along with his troupe had participated in the Republic Day parades in the capital. Their troupe so enthralled Nehru that he also joined them and danced with them. Through his Madho Singh Bhandari folk ballet, Badoni had also tried to make the masses understand how important it was to make sacrifices for the people and their welfare. The explorer's soul in his body took him to the unknown places in the central Himalayas or Uttarakhand. It was he who discovered the Khatling glacier, the source of river Bhilangana. Since then, an annual festival is celebrated there to mark his discovery and with the purpose of encouraging tourism there.

Gairsain : Second phase of Uttarakhand Movement

Gairsain is not an unfamiliar idea. It was widely accepted as the capital of Uttarakhand even before the demand for a separate hill state came into full swing in 1994. In fact, Gairsain is not a geographical entity alone, it is a complete philosophy of development to be achieved through the 73rd and 74th Amendments of our Constitution.
If the present state of things is to be kept forever, then it is alright to make Dehradun as the permanent capital of Uttaranchal. But if we want to tilt our priorities towards that distant person, who has been left far behind in the U.P. model of development, then we will have to make Gairsain our capital. Dehradun means that those who are already better off, will continue to reap the harvest of well being in this new state too. Gairsain means that the government is determined to go to the door of the poorest. Dehradun in no way represents a geography in which the people, though provided handsomely by mother nature, are forced to live in utter poverty. It is as simple as that.
The irony is, that those who were never interested in a separate state, and in fact who opposed the very idea of Uttarakhand are ruling it since it came into being. Mr. Narayan Dutt Tewari had declared in 1994, ''I will not allow Uttarakhand to take shape as long as I am alive.'' Today he heads this state. What a mockery of all those martyrs who sacrificed their lives to fulfil a dream of their people!
Even after Uttaranchal became a reality, Baba Mohan Uttarakhandi had to lay down his life for Gairsain after a fast, lasting 39 days. This tragic event took place on 9th August 2004. Then the activists of Uttarakhand Mahila Manch took over. They started a fast unto death, two at a time, from 2nd October, the tenth anniversary of the infamous Muzaffarnagar incident. During the fast when one woman, whose condition deteriorated, would be forcibly removed and force-fed by Chamoli District Police and Administration, another would take her place. Women activists had to bear the cruel repression of the police, as they were often lathi charged while being forcibly removed. This sequence continued for 63 days. But no one from the Uttaranchal Government came to talk to the women.
This was when the Congress Govt. in Andhra Pradesh was holding talks with the outlawed Naxalite outfits across the table, in Uttaranchal the Chief Minister did not consider the women activists, who sacrificed everything in the historic movement of 1994, fit to talk with. The Uttaranchal Chief Secretary remarked sarcastically, ''Uttarakhand activists should not agitate for an impossible demand.'' This same man, Dr. R.S.Tolia, as a secretary in undivided U.P., had finalised the Ramashankar Kaushik Cabinet Committee report in 1994 which, after prolonged deliberations, had declared Gairsain as the most suitable place for the capital of proposed Uttarakhand state. This apathy forced the Uttarakhand activists to review their tactics.
The Uttaranchal Government had no concern for their lives. The mainstream media would not write about them, as a propagator of consumer economy, it covertly supports the idea of keeping up the capital in Dehradun. Bureaucrats and businessmen in Dehradun does suit its commercial interests more than the ill fed and half naked villagers. If media does not ridicule the emotions of Uttarakhand, it tries to ignore them. So, the best idea, the activists thought, will be to go straight to the people. It was the people who had made the impossible task possible and created this state. But now let down by the politicians, disillusioned and disorganised, they sought counsel. ''Padyatra'' was the time tested method.
Mahatma Gandhi had undertaken many Padyatras to know the Indian people better. Dandi Yatra is a glorious page of our history. Even recently, Dr. Rajshekhar Reddy took a Padyatra to defeat the might of Chandra Babu Nayadu in Andhra Pradesh. Well, they are going to the people and will undertake as many Padyatras, as possible, this was decided by the Uttarakhand Samyukta Sangharsh Samiti. Led by Dr. Shamsher Singh Bisht, President of Uttarakhand Lok Vahini, Kamla Pant and Dr. Uma Bhatt of Uttarakhand Mahila Manch and veteran journalist Harish Chandola the first Padyatra started on 5th December 2004 from Gairsain. Well known poet and cultural activist Girish Tewari ''Girda'' and Editor of ''Pahar'' Dr. Shekhar Pathak were there among others to see them off. Congress M.L.A. Pradeep Tamta accompanied the first Padyatris for a while. The last pair of hunger strikers, Chandrakala Chamoli and Padma Gupta were with these Padyatris in a jeep. On the way these two were forcibly taken away by the Police in Gholteer, near Karnaprayag and were put in a hospital.
The youngest among the Padyatris was 11 years old Aditya Pande, who did not mind walking 15 to 20 Kms per day. Everywhere the Padyatris were accorded a warm welcome. The Padyatris sung songs, raised slogans, distributed their pamphlets titled ''Gairsain ka matlab sabke chehre par muskan aaye'' (Gairsain means a smile on every face) and ''Sirf bhavnayen hee nahin hain Gairsain aandolan ke peeche'' (There are not only emotions behind the Gairsain movement) and sold the Pahar booklet ''Rajdhani Ka Prasna'' (The question of the capital) on their way. They addressed quick meetings wherever they saw a few shops. Their boarding and lodging was taken care of by those who symphathised with their cause, they did not have to pay for it.
Oh yes, they were presented with little purses whenever they requested the audience after a roadside meeting. With this money they were able to pay for the rent and fuel of the jeep following them, with a sound system and their luggage and literature. Walking almost 200 Kms. through Jangalchatti, Adibadri, Simli, Karnaprayag, Rudraprayag, Srinagar, Kirtinagar, Maletha, Pachhmoli, Devprayag, Vyasi, Vashisht Gufa, Tapovan, Muni Ki Reti, Swargashram, Rishikesh, Raiwala, Bhaniawala and Doiwala, 16 tired but smiling Padyatris reached Jogiwala at the outskirts of Dehradun on the evening of 19th December.
They included Dr. Shamsher Singh Bisht, Kamla Pant, Rajiv Lochan Sah, Jabbar Singh Powel, Mahesh Chandra Joshi, Pooran Chandra Tewari, Daya Krishna Kandpal, Manish Sundariyal, Dinesh Chandra Joshi, K.C.Joshi, Pushkar Singh Lodhiyal, Dan Singh Bisht, Soban Singh, Pushpa Chauhan, Neetu Badoni and Heera Bisht. Next day, on their final leg towards Vidhan Sabha Bhawan, they were joined by hundreds of local Samyukta Sangharsh Morcha activists.
The police had put a big barricade to stop them at Rispana Bridge, but it could not hold the demonstrators for long. They broke loose and held a two hour long public meeting outside the Vidhan Sabha gate. On 21st of December 2004 Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha started a 5 day Upvaas on Rajpur Road, in front of the Rajya Sachivalay gate. There was a scuffle with the Police when they put up the tent there, but finally the Police had to back out. Five persons, Kamla Pant, Rajiv Lochan Sah, Chandrakala Bisht, Satish Lakhera and Manish Sundariyal undertook the five day fast, while others accompanied them with 24 hours relay fast.
People in large numbers, from all sections of society came to the Upvaas Sthal to express their support. They listened to the activists, took their literature, became familiar with the concept of Gairsain and offered whatever money they could spare for this cause. One fact that was obvious during this Upvaas was that eighty percent of the residents of Dehradun are tired of the so called ''Provisional Capital.'' They have been deprived of their peaceful life. Dehradun has become a noisy and polluted town. Crime is on the increase. Only twenty percent of the populace is satisfied with the Capital''s present location. These are the people, who have successfully put themselves inside the scheme of things and are reaping the harvest of a new state in form of contracts and other businesses.
During this Upvaas, the Uttarakhand Mahila Manch activists angered by some remarks of Justice Virendra Dixit, chairman of one man Rajdhani Sthal Chayan Ayog, published in Press, ''gheraoed'' him and also stopped the Delhi bound Shatabdi Express for a while. Justice Dixit was unable to answer the demonstrators'' question that if he was honest in his intentions, then why did he not stop the State Government from spending lavishly in Dehradun and gave it an excuse for the future that after so much expenditure it would be unwise to remove the capital from there. Meanwhile, Uttarakhand Kranti Dal also started a fast unto death in Dehradun Collectorate compound. The first hunger striker, Prithvi Chand Ramola, was forcibly removed and force-fed within two days. The others followed suit. The first Padyatra was a morale boosting experience for the activists and within a fortnight Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha started another one.
They started from Gairsain on the 7th of January. This time the destination was Bageshwar, where they were to reach on the auspicious day of Makar Sankranti. Makar Sankranti is observed as the famous Uttarayani Fair in Bageshwar. This day has a political importance too. On the Uttarayani of 1921, the registers of Coolie Begar, i.e., forced labour were set afloat in the confluence of Saryu and Gomti by the Kumaon Parishad activists under the leadership of Pt. Badri Dutt Pande and hence a disgraceful custom was put to an end. Since that day, it has become customary, first for the Congress and after Independence for other political parties too, to hold their rallies in Bageshwar on every Uttarayani. It was an appropriate time for Uttarakhand activists to address the masses. So in a manner, similar to the previous Padyatra, the group of Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha activists reached Bageshwar on the afternoon of 13th January 2004 via Panduwakhal, Chaukhutia, Dwarahaat, Binta, Someshwar, Kausani and Garur,.
The group included Dr. Shamsher Singh Bisht, Kamla Pant, Rajiv Lochan Sah, Pushpa Chauhan, Mahesh Chandra Joshi, Daya Krishna Kandpal, Pooran Chandra Tewari, Bhaskar Upreti, Ramesh Pargain, Manish Sundariyal, Deepak Maithani, Laxman Giri Goswami, Dinesh Chandra Joshi, Soban Singh, Kalawati Goswami, Chandrakala Chamoli, Devki Farswan, Savitri Silswal and Pawna Semwal. Dr. Uma Bhatt and Satish Lakhera had to drop out midway for personal reasons. The slogan shouting group was given a warm reception by Bageshwar District Bar Association, where they addressed a meeting. In the evening they were offered the Bageshwar Mela Samiti Stage meant for cultural programmes. The voice of Dr. Shamsher Singh Bisht, elaborating the concept of Gairsain, was carried far and wide through the loud speakers scattered all over the town. The activist even had the songs of Girda, Narendra Singh Negi and Zahoor Alam for the audience.
Later they marched through the streets of Bageshwar with their songs, slogans and pamphlets. In comparison, the performance of the other political parties like the BJP and the Congress in the historic ''Bagar'' was lack lustre and poorly attended. Padyatras have now been suspended for a while, keeping the adverse winter weather in mind. They will soon start again. The Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha has decided on some treks. One will be in the Nanda Devi Bio Sphere Reserve area of Chamoli district, where the villagers have been deprived of their customary rights in the forests. Another Padyatra will be taken through the catchment of Bhagirathi and Bhilangna rivers in Tehri district, where entire stretches of the rivers have been sold to the outside companies without taking the local populace in confidence. Yet another Yatra, Sangharsh Morcha plans from Almora to Dharchula near the Nepal border.
After all these Padyatras, with all doubts and confusions removed from the minds of the people and persons with zeal and courage identified, Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha intends to hold a meeting on the 23rd of April 2005, the anniversary of the Peshawar incident, when Veer Chandra Singh Garhwali refused to fire on unarmed Pathans and instead opted for life imprisonment. In this convention the strategy for the next round of Uttarakhand movement will be decided. Meanwhile angered by the apathy of the state MLAs, who totally ignored the ongoing agitation about Gairsain in the entire winter session of Vidhan Sabha and preferred to get their allowances enhanced instead, Kamla Pant, convener of Uttarakhand Samyukta Sangharsh Morcha and Satish Lakhera, convener of its Gairsen unit staged a protest in the House on 20th January, the last day of the session by slogan shouting. They were immediately arrested but were let free later in the evening. So, the struggle for Gairsain goes on.

उत्तराखण्ड ने अब ठानी है, सिर्फ गैरसैंण राजधानी है..!

No Need To Take The Capital To Gairsain

The real struggle is far from over. I have no faith in our present leaders, as I feel hurt with the way they have been behaving. If someone from the UKD or the Congress wants to really help Uttaranchal people, he or she must behave in a sensible and responsible manner... and must come forward with new and innovative ideas for the development and people’s participation in the development work. Right now, the people of Uttaranchal have lost zeal to participate in the community affairs. I have never seen such bad conditions of villages and especially the whole community…I hope you can try to make public opinion to put pressure on our leadership to act and to take timely actions in this regard. Looking forward for articles on public movements and community life of the hills from time to time. This will be of great value to those doing community work in remote areas of Uttaranchal.
As regards Suresh Nautiyal’s article regarding shift of state capital of Uttaranchal to Gairsain, I am not convinced with his idea that people of the new state want to shift from Dehradun to Gairsain. I have visited Garhwal for nearly three or four times after creation of Uttaranchal state and people are so much fed up with the government machinery as well as with the behaviour of state leaders that they are wondering if they can really deliver.
It is true for each and every party. The UKD, which claims to be representative of The Uttaranchali people, is a party of desperate leaders and they have lost all the relevance in the present context. What I think is that shifting the state capital to Gairsain will be a big mistake. Dehradun being near to Delhi and well connected to every part of the country is a suitable place. Also, Dehradun is a cultural hub of Uttaranchal and will become a true cosmopolitan city. Representing people from all walks of life. Gairsain does not provide any such advantage and it will be just wastage of resources to take capital there.

pankaj's

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भूतपूर्व सैनिकों की उत्तराखण्ड आन्दोलन में शहादत पर

सीमा पर जो नही आ सके अचूक निशाने की जद़ मे
नही आ सके जो मिसाइलों -टैंकों और राँकेटो की रेंज मे,
वे आ गये बिना निशाना सधी गोलियो की चपेट में
जो देश कि सीमा पर मुस्तैदी से रहे तैनात,
मार गिराया जिन्होने न जाने कितने दुश्मनो को,
वो काम आ गये अपनी ही जमीन पर
अपने ही लोगो के बीच निहत्थे थे
अस्मिता की तलाश मे निकले,
मुटिठ्या तनी थी,
जिसमे थी इच्छायें,
इच्छाओ से पटी थी आग,
आग से जले थे शब्द,
और उन शब्दो से डरा हुआ था तानाशांह,
एक जद के खिलाफ निहत्थे खडे़ थे
हजारो के बीच वे तीन या तेरह,
पांच या सात,
और इस जिद के खिलाफगिरते-गिरते भी उन्होने
अपने खून से लिख दिया
ज...य ..उ..त्त..रा...खण्ड

मसूरी काण्ड पर लिखी गयी ह्रदय स्पर्शी कविताविदा मां ......विदा !!

मसूरी काण्ड पर लिखी गयी ह्रदय स्पर्शी कविताविदा मां ......विदा !!(जगमोहन)

जाते समय झार पर छोड़ आई थी,वह माँ कहकर आई थी अभी आती हूँ
ज...ल्दी बस्स.....तेरे लिए, एक नई जमीन,एक नई हवा, नया पानी ले आऊं ले आऊं
नई फसल, नया सूरज, नई रोटी
अब्बी आई....बस्स पास के गांधी-चारे तक ही तो जाना है,झल्लूस में
चलते समय एक नन्ही हथेली, उठी होगी हवा में- विदा ! मां विदा!!
खुशी दमकी होगी,दोनो के चेहरे पर माथा चूमा होगा मां ने- उन होठो से,
जिनसे निकल रहे थे नारे वह मां सोई पडी़ है सड़क पर पत्थर होंठ है,
पत्थर हाथ पैर पथराई आँखे पहाडों की रानी को, पहाड़ देखता है
अवा्क - चीड़ देवदार, बाँज -बुराँस, खडें हैसन्न-
आग लगी है आज.आदमी के दिलो में खूब रोया दिन भर बादल रखकर सिर पहाड़ के कन्धे पर
नही जले चूल्हे, गांव घरो में उठा धुआ उदास है खिलखिलाते बच्चे,
उदास है फूल वह बेटा भी रो-रोकरसो गया है- अभी नही लौटी मां......
लौटेगी तो मैं नही बोलूंगा लौटी क्यों नही अभी तक....!
उसे क्या पता, बहरे लोकतन्त्र में वह लेने गई है,अपने राजा बेटे का भविष्य
हीरा सिंह राणा की उत्तराखंड आन्दोलन की लोकप्रिय कविता

लश्का कमर बांधा,हिम्मत का साथा फिर भुला उज्याली होली,
कां लै रौली राता लश्का कमर बांधा.....
य नि हूनो ऊ नि होनो,कै बै नि हूंनो के ,
माछी मन म डर नि हुनि चौमासै हिलै के
कै निबडैनि बाता धर बै हाथ म हाथा, सीर पाणिक वै फुटैली जां मारुलो लाता
लश्का कमर.....
जब झड़नी पाता डाई हैं छ उदासा, एक ऋतु बसंत ऐछ़ पतझडा़ का बाद
लश्का कमर बांधा........

के दगडियों सी गोछा?

क्यूं दोस्तो सो गये?
1994 के उत्तराखण्ड आन्दोलन में अचानक विराम लगने से उत्पन्न व्यथा को कुमाऊनी कवि शेरदा "अनपढ" ने इन शब्दों में व्यक्त किया.इस दौर में भी इस कविता की प्रासंगिकता कम नही हुई है, जब राज्य बने 7 साल बीत चुके हैं और आम जनता नेताओं और पूंजीपतियों के द्वारा राज्य को असहाय होकर लुटता देख रहे हैं. कहीं भी विरोध की चिंगारी सुलगती नही दिख रही है. उम्मीद है कि शेरदा "अनपढ" की यह कविता युवा उत्तराखण्डियों को उद्वेलित जरूर करेगी.
चार कदम लै नि हिटा, हाय तुम पटै गो छा? के दगडियों से गोछा?
डान कान धात मनानेई, धात छ ऊ धात को?
सार गौ त बटि रौ, तुम जै भै गो छा?
भुलि गो छा बन्दूक गोई, दाद भुलि कि छाति भुलि गिछा इज्जत लुटि,
तुमरै मैं बैणि मरि हिमालाक शेर छो तुम, दु भीतर फै गो छा? के दगडियों से गोछा?
काहू गो परण तुमर, मरणै कसमा खै छी उत्तराखण्ड औं उत्तराखण्ड,
पहाडक ढुंग लै बोलाछि कस छिया बेलि तुम, आज कस है गो छा के दगडियों से गोछा?
एकलो नि हुन दगडियो, मिल बेर कमाल होल किरमोई तराणै लै,
हाथि लै पैमाल होल ठाड उठो बाट लागो, छिया के के है गो छा? के दगडियों से गोछा?
तुम पुजला मज्याव में, तो दुनिया लै पुजि जालि तुमरि कमर खुजलि तो,
सबूं कमरि खुजि जालि निमाई जै जगूना, जगाई जै निमुंछा के दगडियों से गोछा?
जांठि खाओ, जैल जाओ, गिर जाओ उठने र वो गर्दन लै काटि जौ तो,
धड हिटनै र वो के ल्यूंल कोछि कायेडि थै, ल्यै गो छा? के दगडियों से गोछा?

उत्तराखण्ड आन्दोलन के शहीद






















इन अमर शहीदों को शत-शत नमन
८ अगस्त, १९९४, पौडी.
जीत बहादुर गुरुंग
१ सितम्बर, १९९४ - खटीमा.
प्रताप सिंह
भुवन सिंह
सलीम
भगवान सिंह
धर्मानन्द भट्ट
गोपी चंद
परमजीत सिंह
रामपाल
२ सितम्बर, १९९४ - मंसूरी
श्रीमती बेलमती चौहान
श्रीमती हंसा धनाई
राय सिंह बंगारी
धनपत सिंह
मदन मोहन मंमगांई
बलबीर सिंह नेगी
उमाशंकर त्रिपाठी (पुलिस उप-अधीक्षक)
गुड्डू
२ अक्टूबर, १९९४ (रामपुर तिराहा - मुजफ़्फ़रनगर)
रवीन्द्र रावत
गिरिश कुमार भद्री
सतेन्द्र सिंह चौहान
सुर्य प्रकाश थपलियाल
राजेश लखेडा
अशोक कुमार
राजेश नेगी (इनका शव आज तक प्राप्त नहीं हो सका है)
३ अक्टूबर, १९९४ - देहरादून
राजेश रावत
दीपक वालिया
बलवन्त सिंह जगवाण
३ अक्टूबर, १९९४ - कोटद्वार
प्रथ्वी सिंह बिष्ट
राकेश देवरानी
३ अक्टूबर, १९९४ - नैनीताल
प्रताप सिंह बिष्ट
१० नबम्बर, १९९५ (श्रीयंत्र टापू - श्रीनगर)
राजेश रावत
यशोधर बेजवाल


इन अमर शहीदों को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि

याद करो कुर्बानी : शहीदों को श्रद्धांजली

"क्रिएटिव उत्तराखण्ड - म्योर पहाड" उत्तराखण्ड राज्य की इस वर्षगांठ के अवसर पर समस्त राज्यवासियों को शुभकामनाएं प्रेषित करता है.लेकिन हम नहीं भूले हैं उन लोगों का बलिदान जिन्होने राज्य निर्माण के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दी. तो साथियो आइये, श्रद्धा सुमन अर्पित करें उन शहीदों को जिनके बलिदान के फलस्वरूप उत्तराखण्ड राज्य का सपना हकीकत बन पाया."क्रिएटिव उत्तराखण्ड - म्योर पहाड" की वेबसाइट पर ओन-लाइन श्रद्धांजली देने के लिए यहां क्लिक करेंhttp://www.creativeuttarakhand.com"क्रिएटिव उत्तराखण्ड - म्योर पहाड" ने आन्दोलन से संबन्धित कुछ साहित्य इकट्ठा किया है. उसे यहां पढेंhttp://www.creativeuttarakhand.com/tribute.html