Tuesday, April 21, 2009

मसूरी कांड-लाशों को बो कर उत्तराखण्ड के फूल उगाओ


विक्टर बनर्जी (मसूरी हत्याकांड का यह विवरण ४ सितम्बर, १९९४ के टाईम्स आफ इण्डिया, दिल्ली में छपा था, यहां पर उसका अनुवाद प्रस्तुत है। लेखक विक्टर बनर्जी प्रख्यात अभिनेता हैं)

मीलों दूर से पैदल दूध और सब्जी लाकर बेचने और गरीबी में निर्वाह करने वाले काश्तकारों की सेवाओं पर निर्भर, सीधे-सादे लोगों की बसासत वाला पहाड़ी शहर मसूरी शुक्रवार २ सितम्बर, १९९४ को स्तब्ध रह गया।

सिर्फ एक कमरे के लिये! पहाड़ी पर बना एक छोटा सा कमरा, जिसमें उत्तराखण्ड राज्य संघर्ष समिति वाले रह रहे थे। इन विशाल उपमहाद्वीप के मैदानी क्षेत्र के निवासियों को यह समझा पाना मुश्किल होगा कि यह सेवानिवृत्त कर्मचारियों, घरेलू महिलाओं और छात्रों का समूह था। महिलायें, जो यह समझती हैं कि चाय के कप के साथ सहानुभूति भी बांटी जा सकती है। दिन-प्रतिदिन भविष्यहीन होते जाते वे छात्र, जिनके लिये बालीवुड का मायावी संसार ही रामराज्य है, जहां कलफदार वर्दी वाली पुलिस हवाई फायर करती, अश्रु गैस या पानी के गुब्बारे फेंकती, विदूषकों जैसा बर्ताव करती है। क्या मजा है! और वे सरयू को लाल कर देने वाली और अल्पसंख्यकों पर बाज सी तत्परता से झपटने वाली उत्तर प्रदेश की पुलिस की असलियत से बहुत दूर थे।

भाड़ में जाये संयोग! कैसी विडम्बना है? किसका साहस है कि हमारे नेताओं की जोड़-तोड़ के पीछे असली मकसद ढूंढ सकें। ३० अगस्त की रात मसूरी के थानेदार को एकाएक बगैर पूर्व सूचना के स्थानान्तरित कर दिया गया तथा बदले में एक ऎसे व्यक्ति को ले आया गया, जो स्थानीय जनता के बारे में बिल्कुल नहीं जानता था। उसी रात एस०डी०एम० जसोला, जो एक सम्मानित और ईमानदार गढ़वाली हैं, से कहा गया कि वे अपने आप को मामले से अलग रखें। देहरादून से आये एक एस०डी०एम० ने कमान संभाल ली।

अगली सुबह हफ्तों की अनवरत वर्षा के बाद सूरज ने बादलों के बीच से झांका तो पहाड़ी जनता के सीले मनोबल में भी उत्साह और उल्लास भर गया। तभी पुलिस उस छोटे से कमरे में घुस आई और वहां बैठे मुट्ठी भर अनशनकारियों को बाहर धकेल कर वहां कब्जा कर लिया। लोग घबराकर इधर-उधर बिखर गये, कोई सम्मोहक राजनेता उनके बीच नहीं था। चाय की दुकानों और पहाड़ियों में बैठे वे सोचने लगे कि अब क्या करें? बहुत छोटा सा उत्तराखण्ड उनके पास था और वह भी उनसे छीन लिया गया था। उन अबोध बच्चों की तरह, जिन्हें उनके घर और सुरक्षा से वंचित कर दिया गया हो। टूटे दिलों के साथ वे अपनी चीज वापिस मांगने चले।

२ सितम्बर की सुबह ग्यारह बजे, जब पाच गाडि़यां भर कर छात्र पौड़ी में हो रही रैली में भाग लेने चले गये, उनके परिवारों ने तय किया कि एक जूलूस के रुप में जाकर पुलिस से निवेदन करें कि उनका कमारा उन्हें वापस कर दिया जाय। औरतें, लड़कियां, बच्चे, सेवानिवृत्त अभिभावक तथा अन्य, जिन्होंने अपनी जिन्दगी में घास काटने वाली दरांती के अतिरिक्त कोई हथियार नहीं देखा था (मगर जिनके लोग देश के लिये वीर चक्र और परमवीर चक्र जीतने का हौंसला रखते थे) हिम्मत के साथ आगे बढ़े। कमरे के एकमात्र दरवाजे के आगे जुलूस रुका, अगुवाई कर रहे ७० वर्षीय वृद्धों ने भीड़ से कहा कि जबरन भीतर न घुसें, अन्ततः एक गृहिणी और एक अध्यापिका को पुलिस से बातचीत करने के लिये अन्दर भेजा गया, दुर्भाग्यवश, अपनी बात सुनाने के उत्साह में पांच-छः छात्र भी उस संकरे दरवाजे से घुस गये।

बन्दूकें गरज उठीं, एक औरत की खोपड़ी फट गई और वह ठंडे फर्श में मुर्दा गिर गई। उसके तीन छोटे बच्चे उस पल पास ही "झूला घर" में झूलों का आनन्द ले रहे थे। दूसरी गृहिणी की आंख में गोली मारी गई और उसे वापस भीड़ के बीच फेंक दिया गया। उस छोटे से कमरे में भगदड़ मच गई, भय और आतंक में चलाई गई गोलियों में एक पुलिस अफसर को भी लगी।

फिर पुलिस चली गई, सदमे (काश! निर्दोष दिल व दिमागों के साथ की गई बर्बर हिंसा के लिये कोई बेहतर शब्द होता।) में डूबे कस्बाई लोग खून की धाराओं में पड़े मृतकों को लेकर बिलखने लगे। घायलों को अस्पताल पहुंचा दिया गया, उनकी हताशा अद्भूत ढंग से प्रकट हुई, उन्होंने पुलिस के सिपाहियों द्वारा छोड़े गये हथियारों का ढेर बनाया और उसमें आग लगा दी।

जो रह गये, वे भौंचक्के थे। उनके शांत पहाड़ी समाज में ऎसी घटनायें कभी नहीं घटी थीं, वे समझ नहीं पा रहे थे कि गलती कहां हुई।

दस मिनट बाद पुलिस कमरे पर दोबारा कब्जा करने लौटी, बाहर खड़े लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई गई, इस सबका आतंक मानवीय समझ से परे था। क्या राजनीतिग्यों के अपने परिवार नहीं होते?

मगर प्यार से भरपूर पहाड़ी लोगों का दिल वहशियत और हृदयहीन शत्रु से तो नहीं बदल सकता! चन्द घंटों के भीतर रक्तदान करने और अपने मित्रों को सांत्वना देने के लिये लोग अस्पताल में एकत्र हो गये। विवेकहीन नारेबाजी की एक भी आवाज नहीं उठी।

मुहब्बत के बाग में लाशें रोप दी जायेंगी और तब वे एक ऎसे उत्तराखण्ड के रुप में खिलेंगी, जो इसके चाहने वालों को अपनेपन ला एहसास दे सकें। लेकिन हम राजनीतिक दलों को दूर ही रखें, कहीं वे अपने गन्दे नाखूनों से लाशों को खोदकर घृणा न फैलायें- इस भावना का हमारे हिमालयी अंचल में कोई स्थान नहीं है।

नैनीताल समाचार (१५ सितम्बर, १९९४ से साभार टंकित)

क्या करें?

हालाते सरकार ऎसी हो पड़ी तो क्या करें?
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें?
हादसा बस यों कि बच्चों में उछाली कंकरी,
वो पलट के गोलाबारी हो गई तो क्या करें?
गोलियां कोई निशाना बांध कर दागी थी क्या?
खुद निशाने पै पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?
खाम-खां ही ताड़ तिल का कर दिया करते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पड़ी तो क्या करें?
कांड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत रो पड़ी तो क्या करें?
आप इतनी बात लेकर बेवजह नाशाद हैं,
रेजगारी जेब की थी, खो पड़ी तो क्या करें?
आप जैसी दूरदृष्टि, आप जैसे हौंसले,
देश की आत्मा गर सो पड़ी तो क्या करें?

यह कविता उत्तराखण्ड के जनकवि श्री गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" ने दिनांक आठ अक्टूबर, १९८३ को नैनीताल में हुई पुलिस फायरिंग के बाद लिखी थी।