साथियो,
आज हमारे उत्तराखण्ड राज्य के सामने दो प्रमुख राजनैतिक समस्याएं हैं, पहला तो स्थाई राजधानी का प्रकरण और दूसरा परिसीमन का प्रकरण। परिसीमन के मामले में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की चुप्पी रही, सिर्फ उत्तराखण्ड क्रान्ति दल ने ही इसे प्रमुखता से उठाया और इसका विरोध किया। जब परिसीमन आयोग उत्तराखण्ड आया था तो उक्रांद ने इसकी तीनों बैठकों (देहरादून, नैनीताल और पौड़ी) में विरोध किया और आयोग को उत्तराखण्ड की वास्तविक स्थितियों से अवगत भी कराया। उत्तराखण्ड में परिसीमन भौगोलिक आधार पर या २००२ के परिसीमन के आधार पर हो तो उचित होगा। क्योंकि नये परिसीमन से पहाड़ी क्षेत्रों की ९ विधानसभा क्षेत्र समाप्त हो जायेंगे और यह सीटें मैदानी क्षेत्रों में जुड़ जायेंगी। मेरा मानना है कि उत्तराखण्ड में नये परिसीमन की आवश्यकता नहीं है, उसे यथावत ही रहने देना चाहिये। नये परिसीमन के लागू होने से पर्वतीय जनपदों के निम्न विधान सभा क्षेत्र कम हो जायेंगे-
१- जिला चमोली से एक सीट (नन्दप्रयाग)
२- पौड़ी गढ़्वाल से दो सीटें (१- धूमाकोट २- biironkhaal)
३- पिथौरागढ़ से एक सीट (कनालीछीना)
४- बागेश्वर से एक सीट (कांडा)
५- अल्मोड़ा से एक सीट (भिकियासैंण)
पर्वतीय जनपदों से कुल ६ (छ्ह) सीटें कम होंगी, जो मैदानी जनपदों में जोड़ी जायेंगी निम्नानुसार-
१- देहरादून जनपद में एक सीट
2- हरिद्वार जनपद में दो सीट
3- नैनीताल जनपद में एक सीट
4- उधम सिंह नगर जनपद में दो सीट
टिहरी, चम्पावत, रुद्रप्रयाग तथा उत्तरकाशी जनपदों में विधान सभा क्षेत्र यथावत रखे गये हैं।
साथियो,
उत्तराखण्ड में विधान सभा क्षेत्रों का परिसीमन २००१ में वर्ष १९७१ की जनगणना के आधार पर किया गया था। इसी परिसीमन में उत्तराखण्ड के साथ न्याय नहीं हो पा रहा था, रुद्रप्रयाग और चम्पावत जैसे दुर्गम इलाकों में १ लाख १४ हजार की आबादी पर विधान सभा क्षेत्र बनाये गये, वहीं देहरादून में ४९ हजार की आबादी पर एक विधायक बना दिया गया। हरिद्वार जनपद में जहां हर १६ किलोमीटर पर एक विधायक है वहीं पर्वतीय जनपदों में १३५ किलोमीटर पर एक विधायक है। हरिद्वार का विधायक एक ही दिन में अपने क्षेत्र का दो बार भ्रमण कर सकता है, वहीं धार्चूला का विधायक जिसका क्षेत्र जौलजीबी से शुरू होकर चीन बार्डर तक है, उसे १३५ किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। जिसमें ४० किलोमीटर ही सड़क मार्ग है, शेष ९५ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। १० हजार फीट की ऊंचाई पर चीन सीमा से लगी जोहार, व्यांस और दारमा वैली की ४०० किलोमीटर की दूरी तय कर पाना क्या किसी चुनौती से कम है, आज फिर से परिसीमन करके उस क्षेत्र को और बढा दिया जायेगा। मैदानी जिले में २६१ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर एक विधायक है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में इससे १० गुना करीब २६४८ वर्ग किलोमीटर पर एक विधायक है। साफ है कि पहाड़ों की विषम भौगोलिक स्थिति और वहां पर संचार, सड़क और अन्य बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, उसके आधार पर यह परिसीमन कैसे हमें मान्य हो सकता है। विधायक निधि को ही देखा जाय तो वर्तमान में जो परिसीमन लागू किया जा रहा है, उससे ही पर्वतीय क्षेत्रों का प्रतिवर्ष ९.०० करोड़ रूपया विधायक निधि का ही कम हो गया है। आंकड़ों को देखा जाय तो मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या के प्रतिशत में लगातार वृद्दि हुई और पर्वतीय क्षेत्रों में यह आंकड़ा लगातार घट रहा है, रोजगार के लिये पलायन करना हमारी मजबूरी है। संविधान के अनुच्छेद ८१ एव ८२ में प्रावधान है कि प्रत्येक जनगणना के बाद विधान सभा और लोक सभा क्षेत्रों का परिसीमन किया जाय तथा ८४ वें संशोधन के अनुसार में १९७१ की जनगणना के आधार पर हुये परिसीमन को २००१ तक व १९९१ की जनसंख्या के आधार पर हुये परिसीमन को २०२६ तक परिसीमित मान लिया गया। संविधान के ८४ वें सशोधन में यह व्यवस्था की गई थी कि राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों को १९७१ की जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन सीटों का आवंटन किया जायेगा और इसके बाद २००१ की जनगणना के आधार पर फिर समायोजित किया जायेगा। इस प्रकार प्रस्तावित परिसीमन दो वर्षो १९७१ और २००१ की जनसंख्या के आधार पर किया गया था, न कि २००१ की गणना पर। इसमें यह भी व्यवस्था थी कि जिन राज्योम में १९७१ की जनगणना के चाधार पर परिसीमन हो गया है, वहां २०२६ तक परिसीमन की आवश्यकता नहीं है। चूंकि उत्तराखण्ड में १९७१ की गणना के आधार पर परिसीमन किया जा चुका था, तो इसे इस परिसीमन से अलग रखा जाना चाहिये था।