Saturday, August 8, 2009

जय गोलू, जय बद्री-केदार, गैरसैंण में बैठेगी उत्तराखण्ड सरकार

कई साल पहले की बात है 2 भाई थे, इतिहास में Write Brothers के नाम से प्रसिद्ध हैं. उन्होंने एक सपना देखा, सपना था आदमी को हवा में उड़ाने की तकनीक विकसित करने का. लोगों ने उनकी खिल्ली उड़ाई, कुछ लोगों ने उन्हें ’सिरफिरा’ कहा.

आज हवाई जहाज में उड़ते हुए हम एयर होस्टेस की खूबसूरती निहारते हुए और पत्रिकाएं उपन्यास पड़ते हुए सफर खतम कर देते हैं पर शायद ही कोई Write Brothers को याद करता होगा.
ऐसे ही सिरफिरों ने फिर एक सपना देखा. 1857 में कुछ सिरफिरों ने सोचा क्यूं ना भारत से अंग्रेजों को खदेड़ दिया जाये. कोशिश की, पूरी सफलता तो नही मिली, लेकिन और लोगों के दिमाग में सपना जगा गये. आखिर 90 साल बाद 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ. अब साल में एक-दो बार उन ’सिरफिरों’ को याद कर लो तो बहुत है. क्यूंकि भाई अब तो आजादी शब्द समलैंगिकता और ना जाने किन-किन बेहूदा मसलों के लिये प्रयोग किया जाने लगा है.

अपने पहाड़ी लोग भी कम ’सिरफिरे’ जो क्या ठैरे? भारत को आजादी मिलने के समय से ही कहने लगे कि हमें अलग राज्य चाहिये. 1994 में तो हद ही कर दी, कहने लगे- आज दो अभी दो, उत्तराखण्ड राज्य दो. उस टाइम भी कुछ विद्वान लोग अवतरित हुए. एक ’विद्वान’ तब कहते थे- "उत्तराखण्ड राज्य मेरी लाश पर बनेगा". उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला तोइ चूके नहीं. एक और भाई सैब थे, ये बोलते थे- "राज्य तो शायद नही बन पायेगा, अगर केन्द्र शासित प्रदेश (Union Territory) हो जाये तो हमें मन्जूर है. (नाम नही बोलुंगा- दोनों लोग उच्च पद पर आसीन है, नाम लेने से पद की गरिमा को ठेस पहुंच सकती है.)

जो भी हुआ फिर, नवम्बर 2000 में उत्तराखण्ड राज्य बन ही गया. इन ’सिरफिरों’ का सपना भी सच हो गया? ’विद्वान’ लोग बोले राजधानी Temporary रखते हैं अभी. समिति बनाओ वो ही बतायेगी असली वाली राजधानी कहां होगी? समिति ने 9 साल लगा दिये यह बताने में कि Temporary वाली राजधानी ही Permanent के लायक है. और यह भी बोला कि पहाड़ की तरफ़ तो देखना भी मत, स्थाई राजधानी के लिये, वहां तो समस्याएं ही समस्याएं हैं. (उन्होंने बताया तो हमें भी यह पता लगा). समिति ने कहा है कि नया शहर बसाने में तो खर्चा भी बहुत होगा.

लेकिन फिर कुछ नये टाइप के ’सिरफिरे’ पैदा हो रहे हैं. उनका कहना है कि समस्याओं से भाग क्यों रहे हो? उन्हें हल करो. राजधानी बनानी है प्रदेश की जनता की सुविधा के लिये, नेताओं और नौकरशाहों की सुविधा के लिये नहीं. बांध बनाने के लिये तो पुराने शहरों, दर्जनों गांवों को उजाड़ कर नया शहर बना रहे हो, राजधानी के लिये भी बनाओ एक नया शहर!!!! ’सिरफिरे’ कह रहे हैं - ना भावर ना सैंण, उत्तराखण्ड की राजधानी होगी गैरसैंण. अब देखते हैं फिर क्या करते हैं ये ’सिरफिरे’? कुछ विद्वान ऐसा भी कह गये हैं - "No Gain Without Pain", विद्वानों ने कहा है तो भई ठीक ही कहा होगा. तो करो संघर्ष, अब उत्तराखण्ड की राजधानी को गैरसैंण पहुंचा कर ही दम लेना है हां!!!

Sunday, May 24, 2009

लड़ के लेंगे, भिड़ के लेंगे, छीन के लेंगे

dehradunss

जनकवि अतुल शर्मा की उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान की कविता, यह कविता आन्दोलनकारियों के लिये एक स्फूर्ति का काम करती थी।

लड़ के लेंगे, भिड़ के लेंगे, छीन के लेंगे उत्तराखण्ड,

शहीदों की कसम हमें है, मिलके लेंगे उत्तराखण्ड।

पर्वतों के गांव से आवाज उठ रही सम्भल.....!

औरतों की मुट्ठियां मशाल बन गई सम्भल......!

हाथ में ले हाथ आगे बढ़ के लेंगे उत्तराखण्ड। लड़ के लेंगे..........।

आग की नदी, पहाड़ की शिराओं में बही,

हम ही तय करेंगे, अब कि क्या गलत है क्या सही,

राजनीति वोट की बदल के लेंगे उत्तराखण्ड। लड़ के लेंगे..........।

प्रांत और केन्द्र का ये खेल है हवा महल,

फाइलों में बंद है जलते सवालों की फसल,

प्रांत और केन्द्र को हिला के लेंगे उत्तराखण्ड। लड़ के लेंगे..........।

नई कहानी तिरंगे के सथ बुनी जायेगी,

हंसुली और दाथियों की बात सुनी जायेगी,

गढ़-कुमाऊं दोनों आगे बढ़ के लेंगे उत्तराखण्ड। लड़ के लेंगे..........।

दीदी-भुलियां तीलू रौतेली की तरह छायेंगी,

भूखी प्यासी कोदा और कंडाली खाके आयेंगी,

कफ्फू चौहान बन के बढ़ के लेंगे उत्तराखण्ड। लड़ के लेंगे..........।

श्रीदेव सुमन, माधो सिंह भण्डारी बनके आज देख लें,

चन्द्र सिंह, गबर सिंह बनके आज देख लें,

आज के जवान जेल भरके लेंगे उत्तराखण्ड। लड़ के लेंगे..........।

मुट्ठियां उठी हैं इस सिरे से उस सिरे तलक,

मशालें जल उठेंगी इस सिरे से उस सिरे तलक,

हर जुबान को ये गीत देके लेंगे उत्तराखण्ड। लड़ के लेंगे..........।

एक दिन नई सुबह उगेगी यहां देखना,

दर्द भरी रात भी कटेगी यहां देखना,

जीत के रुमाल को हिला के लेंगे उत्तराखण्ड। लड़ के लेंगे..........।

Tuesday, April 21, 2009

मसूरी कांड-लाशों को बो कर उत्तराखण्ड के फूल उगाओ


विक्टर बनर्जी (मसूरी हत्याकांड का यह विवरण ४ सितम्बर, १९९४ के टाईम्स आफ इण्डिया, दिल्ली में छपा था, यहां पर उसका अनुवाद प्रस्तुत है। लेखक विक्टर बनर्जी प्रख्यात अभिनेता हैं)

मीलों दूर से पैदल दूध और सब्जी लाकर बेचने और गरीबी में निर्वाह करने वाले काश्तकारों की सेवाओं पर निर्भर, सीधे-सादे लोगों की बसासत वाला पहाड़ी शहर मसूरी शुक्रवार २ सितम्बर, १९९४ को स्तब्ध रह गया।

सिर्फ एक कमरे के लिये! पहाड़ी पर बना एक छोटा सा कमरा, जिसमें उत्तराखण्ड राज्य संघर्ष समिति वाले रह रहे थे। इन विशाल उपमहाद्वीप के मैदानी क्षेत्र के निवासियों को यह समझा पाना मुश्किल होगा कि यह सेवानिवृत्त कर्मचारियों, घरेलू महिलाओं और छात्रों का समूह था। महिलायें, जो यह समझती हैं कि चाय के कप के साथ सहानुभूति भी बांटी जा सकती है। दिन-प्रतिदिन भविष्यहीन होते जाते वे छात्र, जिनके लिये बालीवुड का मायावी संसार ही रामराज्य है, जहां कलफदार वर्दी वाली पुलिस हवाई फायर करती, अश्रु गैस या पानी के गुब्बारे फेंकती, विदूषकों जैसा बर्ताव करती है। क्या मजा है! और वे सरयू को लाल कर देने वाली और अल्पसंख्यकों पर बाज सी तत्परता से झपटने वाली उत्तर प्रदेश की पुलिस की असलियत से बहुत दूर थे।

भाड़ में जाये संयोग! कैसी विडम्बना है? किसका साहस है कि हमारे नेताओं की जोड़-तोड़ के पीछे असली मकसद ढूंढ सकें। ३० अगस्त की रात मसूरी के थानेदार को एकाएक बगैर पूर्व सूचना के स्थानान्तरित कर दिया गया तथा बदले में एक ऎसे व्यक्ति को ले आया गया, जो स्थानीय जनता के बारे में बिल्कुल नहीं जानता था। उसी रात एस०डी०एम० जसोला, जो एक सम्मानित और ईमानदार गढ़वाली हैं, से कहा गया कि वे अपने आप को मामले से अलग रखें। देहरादून से आये एक एस०डी०एम० ने कमान संभाल ली।

अगली सुबह हफ्तों की अनवरत वर्षा के बाद सूरज ने बादलों के बीच से झांका तो पहाड़ी जनता के सीले मनोबल में भी उत्साह और उल्लास भर गया। तभी पुलिस उस छोटे से कमरे में घुस आई और वहां बैठे मुट्ठी भर अनशनकारियों को बाहर धकेल कर वहां कब्जा कर लिया। लोग घबराकर इधर-उधर बिखर गये, कोई सम्मोहक राजनेता उनके बीच नहीं था। चाय की दुकानों और पहाड़ियों में बैठे वे सोचने लगे कि अब क्या करें? बहुत छोटा सा उत्तराखण्ड उनके पास था और वह भी उनसे छीन लिया गया था। उन अबोध बच्चों की तरह, जिन्हें उनके घर और सुरक्षा से वंचित कर दिया गया हो। टूटे दिलों के साथ वे अपनी चीज वापिस मांगने चले।

२ सितम्बर की सुबह ग्यारह बजे, जब पाच गाडि़यां भर कर छात्र पौड़ी में हो रही रैली में भाग लेने चले गये, उनके परिवारों ने तय किया कि एक जूलूस के रुप में जाकर पुलिस से निवेदन करें कि उनका कमारा उन्हें वापस कर दिया जाय। औरतें, लड़कियां, बच्चे, सेवानिवृत्त अभिभावक तथा अन्य, जिन्होंने अपनी जिन्दगी में घास काटने वाली दरांती के अतिरिक्त कोई हथियार नहीं देखा था (मगर जिनके लोग देश के लिये वीर चक्र और परमवीर चक्र जीतने का हौंसला रखते थे) हिम्मत के साथ आगे बढ़े। कमरे के एकमात्र दरवाजे के आगे जुलूस रुका, अगुवाई कर रहे ७० वर्षीय वृद्धों ने भीड़ से कहा कि जबरन भीतर न घुसें, अन्ततः एक गृहिणी और एक अध्यापिका को पुलिस से बातचीत करने के लिये अन्दर भेजा गया, दुर्भाग्यवश, अपनी बात सुनाने के उत्साह में पांच-छः छात्र भी उस संकरे दरवाजे से घुस गये।

बन्दूकें गरज उठीं, एक औरत की खोपड़ी फट गई और वह ठंडे फर्श में मुर्दा गिर गई। उसके तीन छोटे बच्चे उस पल पास ही "झूला घर" में झूलों का आनन्द ले रहे थे। दूसरी गृहिणी की आंख में गोली मारी गई और उसे वापस भीड़ के बीच फेंक दिया गया। उस छोटे से कमरे में भगदड़ मच गई, भय और आतंक में चलाई गई गोलियों में एक पुलिस अफसर को भी लगी।

फिर पुलिस चली गई, सदमे (काश! निर्दोष दिल व दिमागों के साथ की गई बर्बर हिंसा के लिये कोई बेहतर शब्द होता।) में डूबे कस्बाई लोग खून की धाराओं में पड़े मृतकों को लेकर बिलखने लगे। घायलों को अस्पताल पहुंचा दिया गया, उनकी हताशा अद्भूत ढंग से प्रकट हुई, उन्होंने पुलिस के सिपाहियों द्वारा छोड़े गये हथियारों का ढेर बनाया और उसमें आग लगा दी।

जो रह गये, वे भौंचक्के थे। उनके शांत पहाड़ी समाज में ऎसी घटनायें कभी नहीं घटी थीं, वे समझ नहीं पा रहे थे कि गलती कहां हुई।

दस मिनट बाद पुलिस कमरे पर दोबारा कब्जा करने लौटी, बाहर खड़े लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई गई, इस सबका आतंक मानवीय समझ से परे था। क्या राजनीतिग्यों के अपने परिवार नहीं होते?

मगर प्यार से भरपूर पहाड़ी लोगों का दिल वहशियत और हृदयहीन शत्रु से तो नहीं बदल सकता! चन्द घंटों के भीतर रक्तदान करने और अपने मित्रों को सांत्वना देने के लिये लोग अस्पताल में एकत्र हो गये। विवेकहीन नारेबाजी की एक भी आवाज नहीं उठी।

मुहब्बत के बाग में लाशें रोप दी जायेंगी और तब वे एक ऎसे उत्तराखण्ड के रुप में खिलेंगी, जो इसके चाहने वालों को अपनेपन ला एहसास दे सकें। लेकिन हम राजनीतिक दलों को दूर ही रखें, कहीं वे अपने गन्दे नाखूनों से लाशों को खोदकर घृणा न फैलायें- इस भावना का हमारे हिमालयी अंचल में कोई स्थान नहीं है।

नैनीताल समाचार (१५ सितम्बर, १९९४ से साभार टंकित)

क्या करें?

हालाते सरकार ऎसी हो पड़ी तो क्या करें?
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें?
हादसा बस यों कि बच्चों में उछाली कंकरी,
वो पलट के गोलाबारी हो गई तो क्या करें?
गोलियां कोई निशाना बांध कर दागी थी क्या?
खुद निशाने पै पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?
खाम-खां ही ताड़ तिल का कर दिया करते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पड़ी तो क्या करें?
कांड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत रो पड़ी तो क्या करें?
आप इतनी बात लेकर बेवजह नाशाद हैं,
रेजगारी जेब की थी, खो पड़ी तो क्या करें?
आप जैसी दूरदृष्टि, आप जैसे हौंसले,
देश की आत्मा गर सो पड़ी तो क्या करें?

यह कविता उत्तराखण्ड के जनकवि श्री गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" ने दिनांक आठ अक्टूबर, १९८३ को नैनीताल में हुई पुलिस फायरिंग के बाद लिखी थी।

Friday, March 27, 2009

गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिये भूगोल और विग्यान पर आधारित विचार

नोट- इस विचार में गलती भी हो सकती है, क्योंकि इसे एक अल्प शिक्षित व्यक्ति लिख रहा है।

उत्तराखण्ड की राजधानी अभी देहरादून है, जो कि पहाड़ों से नीचे घाटी में है, जिस कारण प्रदेश सरकारें जो विकास की गंगायें बहा रही हैं (समाचार पत्रों के विग्यापन, इलेक्ट्रानिक मीडिया में चल रहे विग्यापनों के अनुसार) वह पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रही है। क्योंकि देहरादून से जो विकास की गंगा सरकार बगाती है वो मैदानी एरिया में थोड़ा-थोड़ा सरक पाती है और देहरादून, हरिद्वार, उधम सिंह नगर और नैनीताल के कुछ हिस्सों तक ही उस विकास का पानी पहुंच पाता है। अब भाई बात भी सही ठैरी, अब पानी नीचे से ऊपर को तो जायेगा नहीं, अब सरकार बडी़ मुश्किल से कर्जा मांग-मूंग करके गंगा बहा दे रही है, अब पहाड़ में इस गंगा का पानी पहुंचाने के लिये सरकार पम्पिंग योजना कैसे बनाये। यह तो प्रकृति का नियम ठेरा कि कोई चीज नीचे से ऊपर की ओर नहीं जा सकती। गलती पहाड़ में रह रहे लोगों की है, और वहां से खाली बर्तन के तले का पानी दिखा-दिखा कर कोस रहे हो कि विकास की गंगा के कुछ छींटे हमारी ओर ले फेंको, सरकार बिचारी क्या करे, जिस दिन से सत्ता आयी, उस दिन से ले चुनाव, दे चुनाव। कभी ददा रिसा जाता है, कभी भाया रिसा के दिल्ली चला जाता है। इनको सम्भालें कि तुम्हारे यहां पानी नहीं आ रहा उसको देखें। पहले तो अपने भाया-ददा को देखना होगा, हैलीकाप्टर में विकास की गंगा का पानी भर-भर कर इन रिसाये ददाओं-भुलाओं के घर तक भी पहुंचाना ठेरा। भई! कुसीं रहेगी तो तुमको भी देख सकेंगे ना, किसी दिन। अब मोरी में रहने वाले कह रहे हैं कि देहरादून में डामर वाली अच्छी-खासी सड़क पर दोबारा डामर पोत रहे हो और हमारे यहां आज तक डामर नहीं हुआ, एक बार कर दो। अरे भाई! किसने कहा तुम्हारे पुरखों से कि ऊंच्चा डाणा में जा के बैठो, हैं! अब ये पानी कसिके पहुंचाये तुम्हारे यहां। मेरा तो सरकार से, नीति नियंताओं से अनुरोध है कि इस प्रदेश की राजधानी पहाड पर ही यानी गैरसैंण में बना दे, ताकि वहां से विकास की गाड़ का पानी थोड़ा पहाड़ों पर भी जा सके और कुछ छींटे ऊपर तक भी पहुंच सकें, नीचे तो वह अपने आप आ ही जायेगा।

मैंले त पैली यो कोछ, आब आज भटी नय्या संवत्सर लागी गौ, नाम ले "शुभकृत" छू धैं, पैं ये संवत्सर में कै शुभ कृत्य हूंछै उत्तराखण्ड लिजी....? हे नंदा देवी माता, हे गोल्ज्यू, हे पंचनाम द्याप्तो, हे उत्तराखण्ड का भूमिया देवता, हे महाराज बद्री-केदार ज्य़ू, जागेशर-बागनाथ ज्य़ू......इन पड़ी नेताओं का मुख में थ्वाड़ पानी का छींटा दियो, थ्वाड़ इननकै मति दियो, अक्ल दियो..........ये साल राजधानी गैरसैंण पुजा दियो, भगवान-नारान...........।

लेखक- हुक्का बू (श्री हुकुम सिंह) उत्तराखण्ड।

साभार- http://www.merapahad.com

Wednesday, November 12, 2008

तुम पूछ रहे हो आठ साल, उत्तराखण्ड के हाल-चाल?

राज्य बनने की आठवीं वर्षगांठ पर जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की एक कविता

तुम पूछ रहे हो आठ साल, उत्तराखण्ड के हाल-चाल?

कैसे कह दूं, इन सालों में,
कुछ भी नहीं घटा कुछ नहीं हुआ,
दो बार नाम बदला-अदला,
दो-दो सरकारें बदल गई
और चार मुख्यमंत्री झेले।
"राजधानी" अब तक लटकी है,
कुछ पता नहीं "दीक्षित" का पर,
मानसिक सुई थी जहां रुकी,
गढ़-कुमूं-पहाड़ी-मैदानी, इत्यादि-आदि,
वो सुई वहीं पर अटकी है।
वो बाहर से जो हैं सो पर,
भीतरी घाव गहराते हैं,
आंखों से लहू रुलाते हैं।
वह गन्ने के खेतों वाली,
आंखें जब उठाती हैं,
भीतर तक दहला जातीं हैं।
सच पूछो- उन भोली-भाली,
आंखों का सपना बिखर गया।
यह राज्य बेचारा "दिल्ली-देहरा एक्सप्रेस"
बनकर ठहर गया है।
जिसमें बैठे अधिकांश माफिया,
हैं या उनके प्यादे हैं,
बाहर से सब चिकने-चुपड़े,
भीतर नापाक इरादे हैं,
जो कल तक आंखें चुराते थे,
वो बने फिरे शहजादे हैं।
थोड़ी भी गैरत होती तो,
शर्म से उनको गढ़ जाना था,
बेशर्म वही इतराते हैं।
सच पूछो तो उत्तराखण्ड का,
सपना चकनाचूर हुआ,
यह लेन-देन, बिक्री-खरीद का,
गहराता नासूर हुआ।
दिल-धमनी, मन-मस्तिष्क बिके,
जंगल-जल कत्लेआम हुआ,
जो पहले छिट-पुट होता था,
वो सब अब खुलेआम हुआ।

पर बेशर्मों से कहना क्या?
लेकिन "चुप्पी" भी ठी नहीं,
कोई तो तोड़ेगा यह ’चुप्पी’
इसलिये तुम्हारे माध्यम से,
धर दिये सामने सही हाल,
उत्तराखण्ड के आठ साल.....!

Friday, September 26, 2008

निर्मल पण्डित : चिंगारी उत्तराखण्ड आन्दोलन की



उत्तराखण्ड के जनसरोकारों से जुडे क्रान्तिकारी छात्र नेता स्वर्गीय निर्मल जोशी "पण्डित" छोटी उम्र में ही जन-आन्दोलनों की बुलन्द आवाज बन कर उभरे थे. शराब माफिया,खनन माफिया के खिलाफ संघर्ष तो वह पहले से ही कर रहे थे लेकिन 1994 के राज्य आन्दोलन में जब वह सिर पर कफन बांधकर कूदे तो आन्दोलन में नयी क्रान्ति का संचार होने लगा. गंगोलीहाट, पिथौरागढ के पोखरी गांव में श्री ईश्वरी प्रसाद जोशी व श्रीमती प्रेमा जोशी के घर 1970 में जन्मे निर्मल 1991-92 में पहली बार पिथौरागढ महाविद्यालय में छात्रसंघ महासचिव चुने गये. छात्रहितों के प्रति उनके समर्पण का ही परिणाम था कि वह लगातार 3 बार इस पद पर चुनाव जीते. इसके बाद वह पिथौरागढ महाविद्यालय में छात्रसंघ के अध्यक्ष भी चुने गये. 1993 में नशामुक्ति अभियान के तहत उन्होने एक सेमिनार का आयोजन किया. 1994 में उन्हें मिले जनसमर्थन को देखकर प्रशासन व राजनीतिक दल सन्न रह गये. उनके आह्वान पर पिथौरागढ के ही नहीं उत्तराखण्ड के अन्य जिलों की छात्रशक्ति व आम जनता आन्दोलन में कूद पङे. मैने पण्डित को इस दौर में स्वयं देखा है. छोटी कद काठी व सामान्य डील-डौल के निर्मल दा का पिथौरागढ में इतना प्रभाव था कि प्रशासन के आला अधिकारी उनके सामने आने को कतराते थे. कई बार तो आम जनता की उपेक्षा करने पर सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक तौर पर निर्मल दा के क्रोध का सामना भी करना पङा था. राज्य आन्दोलन के समय पिथौरागढ में भी उत्तराखण्ड के अन्य भागों की तरह एक समानान्तर सरकार का गठन किया गया था, जिसका नेतृत्व निर्मल दा के हाथों मे था. उस समय पिथौरागढ के हर हिस्से में निर्मल दा को कफन के रंग के वस्त्र पहने देखकर बच्चों से लेकर वृद्धों को आन्दोलन में कूदने का नया जोश मिला. इस दौरान उन्हें गिरफ्तार करके फतेहपुर जेल भी भेजा गया. आन्दोलन समाप्त होने पर भी आम लोगों के हितों के लिये पण्डित का यह जुनून कम नहीं हुआ. अगले जिला पंचायत चुनावों में वह जिला पंचायत सदस्य चुने गये. शराब माफिया और खनन माफिया के खिलाफ उन्होने अपनी मुहिम को ढीला नहीं पडने दिया.27 मार्च 1998 को शराब के ठेकों के खिलाफ अपने पूर्व घोषित आन्दोलन के अनुसार उन्होने आत्मदाह किया. बुरी तरह झुलसने पर पिथौरागढ में कुछ दिनों के इलाज के बाद उन्हें दिल्ली लाया गया.16 मई 1998 को जिन्दगी मौत के बीच झूलते हुए अन्ततः उनकी मृत्यु हो गयी. निर्भीकता और जुझारुपन निर्मल दा की पहचान थी. उन्होने अपना जीवन माफिया के खिलाफ पूर्णरूप से समर्पित कर दिया और इनकी धमकियों के आगे कभी भी झुकने को तैयार नहीं हुए. अन्ततः उनका यही स्वभाव उनकी शहीद होने का कारण बना. इस समय जब शराब और खनन माफिया उत्तराखण्ड सरकार पर हावी होकर पहाङ को लूट रहे हैं, तो पण्डित की कमी खलती है.उनका जीवन उन युवाओं के लिये प्रेरणा स्रोत है जो निस्वार्थ भाव से उत्तराखण्ड के हित के लिये काम कर रहे हैं.

Thursday, September 11, 2008

तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्

उत्तराखण्ड राज्य निर्माण प्राप्ति के संघर्ष के दौरान लोगों के दिलों में एक आदर्श राज्य का सपना था. राज्य की प्राप्ति के लिये लगभग 40 लोगों ने अपने प्राण न्यौछावर किये. अन्ततः राज्य तो बन गया, लेकिन 7 साल बीतने पर भी आन्दोलनकारियों के सपनों का राज्य एक सपना ही बना हुआ है.शराब के ठेकेदारों, भू माफियाओं और एन.जी ओ. के नाम पर चल रहे करोड़ों के व्यवसाय के बीच आम उत्तराखण्डी मानस ठगा सा महसूस कर रहा है.
सपना देखा गया था ऐसे राज्य का जिसमें चारों ओर खुशहाली हो. समाज के हर वर्ग की अपनी अपेक्षाएं थीं. नरेन्द्र सिंह नेगी जी की इस कविता के माध्यम से समाज के सभी वर्गों की आक्षांकाएं स्पष्ट होती हैं. भगवान से यही प्रार्थना है कि राज्य के नीतिनिर्धारकों के कानों तक नेगी जी का यह गीत पहुँचे, और वो हमारे सपनों का राज्य बनाने के लिये ईमानदारी और सच्ची निष्ठा से काम करें
.


बोला भै-बन्धू तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
हे उत्तराखण्ड्यूँ तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
जात न पाँत हो, राग न रीस हो,
छोटू न बडू हो, भूख न तीस हो,
मनख्यूंमा हो मनख्यात, यनूं उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला बेटि-ब्वारयूँ तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला माँ-बैण्यूं तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
घास-लखडा हों बोण अपड़ा हों,
परदेस क्वी ना जौउ सब्बि दगड़ा हों,
जिकुड़ी ना हो उदास, यनूं उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला बोड़ाजी तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला ककाजी तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
कूलूमा पाणि हो खेतू हैरयाली हो,
बाग-बग्वान-फल फूलूकी डाली हो,
मेहनति हों सब्बि लोग, यनूं उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला भुलुऔं तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला नौल्याळू तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
शिक्षा हो दिक्षा हो जख रोजगार हो,
क्वै भैजी भुला न बैठ्यूं बेकार हो,
खाना कमाणा हो लोग यनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला परमुख जी तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
बोला परधान जी तुमथैं कनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्,
छोटा छोटा उद्योग जख घर-घरूँमा हों,
घूस न रिश्वत जख दफ्तरूंमा हो,
गौ-गौंकू होऊ विकास यनू उत्तराखण्ड चयेणू छ्!!

Wednesday, September 10, 2008

गिरीश तिवारी "गिर्दा" की एक कविता

"उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन" के दौरान सरकारी उत्पीडन व दमन का परिहास करती गिरीश तिवारी "गिर्दा" की यह पंक्तियां आम लोगों के मन पर अंकित हो गयीं.

गोलियां कोई निशाना बांधकर दागी थी क्या?
खुद निशाने पर आ पङी खोपङी तो क्या करें?
खामख्वां ही तिल का ताङ बना देते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पङी तो क्या करें?
काण्ड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत, रो पङे तो क्या करें?
आप जैसी दूरद्रष्टि, आप जैसे हौंसले,
देश की ही आत्मा गर सो गयी तो क्या करें?

Thursday, September 4, 2008

याद उन्हें भी करलो, जो लौट के घर ना आये...

उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में पुलिस की बर्बरता के शिकार होकर शहीद होने वाले अमर सपूत...


चौदहवीं बरसी पर अश्रुपूर्ण श्रद्धांजली
खटीमा 1 सितम्बर 1994







मंसूरी 2 सितम्बर 1994







मुजफ्फरनगर 2 अक्टूबर 1994


Thursday, August 28, 2008

उत्तराखण्ड के क्रांतिवीर-स्व० श्री विपिन चन्द्र त्रिपाठी/Vipin chandra tripathi

विपिन

              23 Feb, 1945-30 Aug, 2004

23 फरवरी, १९४५ को अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट के दौला गांव में जन्मे विपिन त्रिपाठी जी आम जनता में "विपिन दा" के नाम से प्रसिद्ध थे। पृथक राज्य आन्दोलन के वे अकेले ऎसे विकास प्रमुख रहे हैं, जिनके द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार को उत्तराखण्ड विरोधी नीतियों के खिलाफ दिये गये त्याग पत्र को शासन ने स्वीकार कर लिया था। २२ वर्ष की युवावस्था से विभिन्न आन्दोलनों की अगुवाई करने वाले जुझारु व संघर्षशील त्रिपाठी का जीवन लम्बे राजनैतिक संघर्ष का इतिहास रहा है। डा० लोहिया के विचारों से प्रेरित होकर १९६७ से ही ये समाजवादी आन्दोलनों में शामिल हो गये थे। भूमिहीनों को जमीन दिलाने की लड़ाई से लेकर पहाड़ को नशे व जंगलों को वन माफियाओं से बचाने के लिये ये हमेशा संघर्ष करते रहे। १९७०में तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त का घेराव करते हुये इनको पहली बार गिरफ्तार किया गया। आपातकाल में २४ जुलाई, १९७४ को प्रेस एक्ट की विभिन्न धाराओं में इनकी प्रेस व अखबार "द्रोणांचल प्रहरी" सील कर शासन ने इन्हें गिरफ्तार कर अल्मोड़ा जेल भेज दिया। अल्मोड़ा, बरेली, आगरा और लखनऊ जेल में दो वर्ष बिताने के बाद २२ अप्रेल, १९७६ को उन्हें रिहा कर दिया गया। द्वाराहाट में डिग्री कालेज, पालीटेक्निक कालेज और इंजीनियरिंग कालेज खुलवाने के लिये इन्होंने संघर्ष किया और इन्हें खुलवा कर माने। इन संस्थानों की स्थापना करवा कर उन्होंने साबित कर दिया कि जनता के सरोंकारों की रक्षा और जनता की सेवा करने के लिये किसी पद की आवश्यकता नहीं होती है। १९८३-८४ में शराब विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व करते हुये पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। मार्च १९८९ में वन अधिनियम का विरोध करते हुये विकास कार्य में बाधक पेड़ काटने के आरोप में भी गिरफ्तार होने पर इन्हें ४० दिन की जेल काटनी पड़ी। ईमानदारी और स्वच्छ छवि एवं स्पष्ट वक्ता के रुप में उनकी अलग पहचान बनी २० साल तक उक्रांद के शीर्ष पदों पर रहते हुये २००२ में वे पार्टी के अध्यक्ष बने और २००२ के विधान सभा चुनाव में वह द्वाराहाट विधान सभा क्षेत्र से विधायक निर्वाचित हुये। ३० अगस्त, २००४ को काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे छीन लिया।

Monday, August 11, 2008

ले मशाले चल पडे हैं, लोग मेरे गांव के,

बल्ली सिंह चीमा जी एक क्रान्तिकारी कवि के रूप में पूरे भारत में एक जाना पहचाना नाम हैं. वह ऊधमसिंह नगर के बाजपुर कस्बे में रहते हैं. उन्होनें आमजन के सरोकारों से जुङे मुद्दों और अपने अधिकारों की रक्षा के लिये संगठित होकर संघर्ष करने के लिये जोश भरने वाली कई मशहूर कविताएं लिखी हैं. उनकी एक कविता आप लोगों के लिये प्रस्तुत हैं. यह गीत उत्तराखण्ड आनदोलन के दौरान प्रमुख गीत बन कर उभरा. वर्तमान समय मे यह गीत भारत के लगभग सभी आन्दोलनों में मार्च गीत के रूप में व्यापक रूप से प्रयोग में लाया जाता है.

ले मशाले चल पडे हैं, लोग मेरे गांव के,
अब अंधेरा जीत लेंगे, लोग मेरे गांव के,
कह रही है झोपङी और पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे, लोग मेरे गांव के,
बिन लङे कुछ भी नहीं मिलता यहां यह जानकर
अब लङाई लङ रह हैं , लोग मेरे गांव के,
कफन बांधे हैं सिरो पर, हाथ में तलवार हैं,
ढूंढने निकले हैं दुश्मन, लोग मेरे गांव के,
एकता से बल मिला है झोपङी की सांस को
आंधियों से लङ रहे हैं, लोग मेरे गांव के,
हर रुकावट चीखती है, ठोकरों की मार से
बेडि़यां खनका रहे हैं, लोग मेरे गांव के,
दे रहे है देख लो अब वो सदा-ए -इंकलाब
हाथ में परचम लिये हैं, लोग मेरे गांव के,
देख बल्ली जो सुबह फीकी है दिखती आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे, लोग मेरे गांव के।

मुट्ट बोटीक रख!

नरेंद्र सिंह नेगी ने 1994 में उत्तरकाशी में जब यह पंक्तियां लिखीं, तब सामने अलग राज्य का संघर्ष था। आज अलग राज्य तो है, लेकिन आम आदमी का संघर्ष वही है। ऐसे में उनका यह गीत आज मुझ जैसे न जाने कितने लोगों को संबल देता है।

द्वी दिनू की हौरि छ ,
अब खैरि मुट्ट बोटीकि रख
तेरि हिकमत आजमाणू बेरि
मुट्ट बोटीक रख।
घणा डाळों बीच छिर्की आलु ये मुल्क बी
सेक्कि पाळै द्वी घड़ी छि हौरि,
मुट्ट बोटीक रख
सच्चू छै तू सच्चु तेरू ब्रह्म लड़ै सच्ची तेरी
झूठा द्यब्तौकि किलकार्यूंन ना डैरि
मुट्ट बोटीक रख।
हर्चणा छन गौं-मुठ्यार रीत-रिवाज बोलि
भासायू बचाण ही पछ्याण अब तेरि
मुट्ट बोटीक रख।
सन् इक्यावन बिचि ठगौणा
छिन ये त्वे सुपिन्या दिखैकी
ऐंसू भी आला चुनौमा फेरि
मुट्ट बोटीक रख।
गर्जणा बादल चमकणी
चाल बर्खा हवेकि राली
ह्वैकि राली डांड़ि-कांठी हैरि
मुट्टबोटीक रख।

Tuesday, July 15, 2008




उत्तराखण्ड के दो महान चिंतक स्व० इन्द्रमणि बडोनी एवं श्री काशी सिंह ऎरी






पर्वतीय गांधी स्व० इन्द्रमणि बडोनी




प्रमुख आन्दोलनकारी एक साथ





बडोनी जी आन्दोलनकारियों के साथ

अमर शहीद- बाबा मोहन उत्तराखण्डी

१९४९ में श्री मनबर सिंह रावत के घर में जन्मे श्री मोहन सिंह रावत को उत्तराखण्ड आन्दोलन में सक्रिय योगदान और संघर्षमय जीवन के कारण उन्हें बाबा मोहन उत्तराखण्डी कहा जाता था। वे जल, जंगल, जमीन और उत्तराखण्ड से संबंधित कई जनपक्षीय मुद्दों को लेकर जीवन भर संघर्षमय रहे। बाबा बचपन से ही संघर्षशील और जुझारु प्रवृत्ति के थे। वे पर्वतीय जनता के हितों के लिये सदैव ही चिंतित रहते थे। इण्टर तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सेना में भर्ती हो गये थे। किंतु पर्वतीय जनता के जल, जंगल, जमीन के सवालों पर उद्वेलित होकर उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह से समाजसेवा के लिये समर्पित हो गये। १९८६ से १९९१ तक वे ग्राम सभा बंठाली के ग्राम प्रधान रहे और इस पद पर रहते हुये उन्होंने जनसेवा और ईमानदारी की उत्कृष्ट मिसाल कायम की। अलग उत्तराखण्ड राज्य की प्राप्ति और गैरसैंण राजधानी को लेकर उन्होंने अपने जीवन काल में १३ बार आमरण अनशन किया। अंतिम बार जनपद चमोली के वेणीताल स्थित "टोपरी उडयार" पर गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाये जाने, स्थानीय युवाओं को रोजगार देने के लिये नीति बनाने और राज्य के समग्र विकास की मांग को लेकर उन्होंने २ जून, २००४ से अपना आमरण अनशन शुरु किया और अंततः ३९ दिन के अनशन के बाद ९ जुलाई, २००४ को राज्य हित में अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। उनका उत्तराखण्ड प्रेम वास्तव में अनुकरणीय है, यह ब्लाग उनके बलिदान पर श्रद्धासुमन अर्पित करता है। साथ ही उत्तराखण्ड सरकार से मांग करता है कि उनके शहादत दिवस (९ जुलाई) को राज्य आंदोलनकारी बलिदान दिवस के रुप में घोषित किया जाय।

Monday, April 28, 2008

उत्तराखण्ड आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास

उत्तराखंड राज्य आसानी से नहीं मिला है इसके लिये कई बार बंद और चक्काजाम की मार यहां की जनता को झेलनी पड़ी. इस आन्दोलन में लगभग 50 आन्दोलनकारी शहीद हुए.उत्तराखंड के संघर्ष से राज्य के गठन तक जिन महत्वपूर्ण तिथियों ने भूमिका निभायी वे इस प्रकार हैं- आधिकारिक सूत्रों के अनुसार मई 1938 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन मे गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करकने के आंदोलन का समर्थन किया.
सन् 1940 में हल्द्वानी सम्मेलन में बद्रीदत्त पाण्डेय ने पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा तथा अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमांऊ गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठन की मांग रखी.1954 में विधान परिषद के सदस्य इन्द्रसिंह नयाल ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत से पर्वतीय क्षेत्र के लिये पृथक विकास योजना बनाने का आग्रह किया तथा 1955 में फजल अली आयोग ने पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य के रूप में गठित करने की संस्तुति की.
वर्ष 1957 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष टीटी कृष्णमाचारी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं के निदान के लिये विशेष ध्यान देने का सुझाव दिया. 12 मई 1970 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान राज्य तथा केन्द्र सरकार का दायित्व होने की घोषणा की और 24 जुलाई

1979 में पृथक राज्य के गठन के लिये मसूरी में उत्तराखंड क्रांति दल की स्थापना की गयी. जून 1987 में कर्ण प्रयाग के सर्वदलीय सम्मेलन में उत्तराखंड के गठन के लिये संघर्ष का आह्वान किया तथा नवंबर 1987 में पृथक उत्तराखंड राज्य के गठन के लिये नयी दिल्ली में प्रदर्शन और राष्ट्रपति को ज्ञापन एवं हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में शामिल करने की मांग की गयी.
1994 उत्तराखंड राज्य एवं आरक्षण को लेकर छात्रों नेसामूहिक रूप से आन्दोलन किया 1 मुलायम सिंह यादव के उत्तराखंड विरोधी वक्तब्य से क्षेत्र में आन्दोलन तेज हो गया 1 उत्तराखंड क्रांतिदल के नेताओं ने अनशन किया 1 उत्तराखंड में सरकारी कर्मचारी पृथक राज्य की मांग के समर्थन में लगातार तीन महीने तक हड़ताल पर रहे तथा उत्तराखंड में चक्काजाम और पुलिस फायरिंग की घटनाएं हुई उत्तराखंड आन्दोलनकारियों पर मसूरी और खटीमा में पुलिस द्वारा गोलियां चलायीं गयीं 1 संयुक्त मोर्चा के तत्वाधान में दो अक्टूबर 1994 को दिल्ली में भारी प्रदर्शन किया गया 1 इस संघर्ष में भाग लेने के लिये उत्तराखंड से हजारों लोगों की भागेदारी हुयी 1 प्रदर्शन में भाग लेने जा रहे आन्दोलनकारियों को मुजफ्फर नगर में काफी पेरशान किया गया और उन पर पुलिस ने फायिरिंग की और लाठिया बरसायीं तथा महिलाओं के साथ अश्लील व्यहार और अभद्रता की गयी 1इसमें अनेक लोग हताहत और घायल हुये1इस घटना ने उत्तराखंड आन्दोलन की आग में घी का काम किया 1अगले दिन तीन अक्टूबर को इस घटना के विरोध में उत्तराखंड बंद का आह्वान किया गया जिसमें तोड़फोड़ गोलाबारी तथा अनेक मौतें हुयीं 1 सात अक्टूबर 1994 को देहरादून में एक महिला आन्दोलनकारी की मृत्यु हो गयी इसके विरोध में आन्दोलनकारियों ने पुलिस चौकी पर उपद्रव किया 1 पन्द्रह अक्टूबर को देहरादून में कफ्र्यू लग गया उसी दिन एक आन्दोलनकारी शहीद हो गया 1 27अक्टूबर 1994 को देश के तत्कालीन गृहमंत्री राजेश पायलट की आन्दोलनकारियों की वार्ता हुयी 1इसी बीच श्रीनगर में श्रीयंत्र टापू में अनशनकारियों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक प्रहार किया जिसमें अनेक आन्दोलनकारी शहीद हो गये 1 पन्द्रह अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा ने उत्तराखंड राज्य की घोषणा लालकिले से की 1सन् 1998 में केन्द्र की भाजपा गठबंधन सरकार ने पहली बार राष्ट्रपति के माध्यम से उ.प्र. विधानसभा को उत्तरांचल विधेयक भेजा 1 उ.प्र. सरकार ने 26 संशोधनों के साथ उत्तरांचल राज्य विधेयक विधान सभा में पारित करवाकर केन्द्र सरकार को भेजा 1 केन्द्र सरकार ने 27 जुलाई 200 0को उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 200 0 को लोकसभा मेंे प्रस्तुत किया जो 01 अगस्त 2000 को लोक सभा में तथा 10 अगस्त को राज्यसभा में पारित हो गया 1 भारत के राष्ट्रपति ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक को 28 अगस्त को अपनी स्वीकृति दे दी इसके बाद यह विधेयक अधिनियम में बदल गया और इसके साथ ही 09 नवंबर 2000 को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व मे आया जो अब उत्तराखंड नाम से अस्तित्व में है

उत्तराखण्ड आन्दोलन : सचित्र




































Wednesday, April 9, 2008

उत्तराखण्ड आन्दोलन का गिर्दा द्वारा लिखित कविता ! (बागस्यरौक गीत)

सरजू-गुमती संगम में गंगजली उठूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'भुलु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
उतरैणिक कौतीक हिटो वै फैसला करुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूंलो 'बैणी' उत्तराखण्ड ल्हयूंलो
बडी महिमा बास्यरै की के दिनूँ सबूतऐलघातै उतरैणि आब यो अलख जगूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'भुलु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो धन -मयेडी छाति उनरी,धन त्यारा उँ लाल, बलिदानै की जोत जगै ढोलि गै जो उज्याल खटीमा,मंसुरि,मुजफ्फर कैं हम के भुली जुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'चेली'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
कस हो लो उत्तराखण्ड,कास हमारा नेता, कास ह्वाला पधान गौं का,कसि होली ब्यस्था
जडि़-कंजडि़ उखेलि भली कैं , पुरि बहस करुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो वि कैं मनकसो बैंणूलोबैंणी फाँसी उमर नि माजैलि दिलिपना कढ़ाई
रम,रैफल, ल्येफ्ट-रैट कसि हुँछौ बतूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'ज्वानो' उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
मैंसन हूँ घर-कुडि़ हौ,भैंसल हूँ खाल, गोरु-बाछन हूँ गोचर ही,चाड़-प्वाथन हूँ डाल
धूर-जगल फूल फलो यस मुलुक बैंणूलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'परु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
पांणिक जागि पांणि एजौ,बल्फ मे उज्याल, दुख बिमारी में मिली जो दवाई-अस्पताल सबनै हूँ बराबरी हौ उसनै है बतूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
सांच न मराल् झुरी-झुरी जाँ झुट नि डौंरी पाला, सि, लाकश़ बजरी चोर जौं नि फाँरी पाला
जैदिन जौल यस नी है जो हम लडते रुंलो उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
लुछालुछ कछेरि मे नि हौ, ब्लौकन में लूट, मरी भैंसा का कान काटि खाँणकि न हौ छूट
कुकरी-गासैकि नियम नि हौ यस पनत कँरुलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
जात-पात नान्-ठुल को नी होलो सवाल, सबै उत्तराखण्डी भया हिमाला का लाल
ये धरती सबै की छू सबै यती रुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
यस मुलूक वणै आपुँणो उनन कैं देखुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो

कुली बेगार आन्दोलन

उत्तर भारत के सुरम्य प्रदेशों में उत्तराखण्ड का अपना विशिष्ट महत्व है। आधुनिक कुमायूं के इतिहास का सबसे पहला ऐतिहासिक विवरण हमें एटकिन्सन के गजेटियर जो १८८४-८६ में लिखा गया में मिलता है। भारत के इस कठिन भौगोलिक भूखण्ड में यातायात सदा से दुष्कर रहा है। यदि हम इतिहास के आइने में झांके कि सबसे पहले चन्द शासकों (१२५०-१७९० ई.) ने राज्य में घोडों से सम्बन्धित एक कर ’घोडालों‘ निरूपति किया था सम्भवतः कुली बेगार प्रथा का यह एक प्रारंभिक रूप था। आगे चल गोरखाओं के शासन में इस प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया लेकिन व अंग्रेजों ने अपने प्रारम्भिक काल में ही इसे समाप्त कर दिया। पर धीरे-धीरे अंग्रेजों ने न केवल इस व्यवस्था को पुनः लागू किया परंतु इसे इसके दमकारी रूप तक पहुंचाया। १८७३ ई. के एक सरकारी दस्तावेज से ज्ञात होता है कि वास्तव में यह कर तब आम जनता पर नहीं वरन् उन मालगुजारों पर आरोपित किया गया था जो भू-स्वामियों या जमीदारों से कर वसूला करते थे। अतः देखा जाये तो यह प्रथा उन काश्तकारों को ही प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती थी जो जमीन का मालिकाना हक रखते थे। पर वास्तविकता के धरातल पर सच यह था इन सम्पन्न भू-स्वामी व जमीदारों ने अपने हिस्सों का कुली बेगार, भूमि विहीन कृषकों, मजदूरों व समाज के कमजोर तबकों पर लाद दिया जिन्होंने इसे सशर्त पारिश्रमिक के रूप में स्वीकार लिया। इस प्रकार यह प्रथा यदा कदा विरोध के बावजूद चलती रही। १८५७ में विद्रोह की चिंगारी कुमाऊं में भी फैली। हल्द्वानी कुमांऊ क्षेत्र का प्रवेश द्वार था। वहां से उठे विद्रोह के स्वर को उसकी प्रारंभिक अवस्था में ही अंग्रेज कुचलने में समर्थ हुए। लेकिन उस समय के दमन का क्षोभ छिटपुट रूप से समय समय पर विभिन्न प्रतिरोध के रूपों में फूटता रहा। इसमें अंग्रेजों द्वारा कुमांऊ के जंगलों की कटान और उनके दोहन से उपजा हुआ असंतोष भी था। यह असंतोष घनीभूत होते होते एकबारगी फिर बीसवी सदी के पूर्वार्द्व में ’कुली विद्रोह‘ के रूप में फूट पडा। १८५७ के अल्पकालिक विद्रोह के बाद यह कुमांऊ में जनता के प्रतिरोध की पहली विजय थी। १९१३ ई. में जब कुली बेगार अल्मोडे के निवासियों पर लागू किया गया तो उन्होंने इसका प्रचण्ड विरोध किया। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि कुमांऊ क्षेत्रा विशेषकर अल्मोडा जनपद हमेशा से एक जागरूक जीवंत शहर रहा है व यहां के निवासियों ने सामाजिक सरोकार के प्रश्नों पर सदा से ही एक मत रखा है। इन लोगों का कुमांयू के समाज, साहित्य, लोक कलाओं आदि पर सदैव मजबूत पकड रही अतः यह स्वाभाविक था कि एसे जीवंत शहर के बाशिंदों द्वारा इस व्यवस्था का मजबूत प्रतिरोध होता। बद्रीदत्त पांडे इस आंदोलन के अगुआ नायक के रूप में उभरे। प्रसिद्ध अखबार ’’द लीडर‘‘ में सहायक सम्पादक के रूप में उभरने के बाद से उन्होंने १९१३ ई. में ’’अल्मोडा अखबार‘‘ की बागडोर संभाली। बद्रीदत्त पांडे जो कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे, उन्होंने इसको अंग्रेजों सत्ता के विरूद्ध हथियार बना लिया। ब्रिटिश शासन ने कुली बेगार के माध्यम से स्थानीय समाज के परम्परागत ढांचे को प्रभावित किया था। शासकों के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य कर चुके स्थापित भू-स्वामियों को इसने सबसे अधिक प्रभावित किया। इन प्रभावशाली स्थानीय व्यक्तियों को इन नई व्यवस्था में अन्य साधारण स्थानीय व्यक्तियों के समकक्ष समझा गया क्योंकि अंग्रेजों ने मौटे तौर पर समाज को केवल दो वर्गों-शासक व शासित में बांटा। इस नयी व्यवस्था से समाज के संपन्न और प्रभावशाली वर्ग में गहरा असंतोष था। ब्रिटिश सरकार ने इस असंतोष से निपटने का एक विलक्षण उपाय ढूंढा व इसे स्थानीय प्रथा कह स्वयं को इससे अलग करने का प्रयास किया। ऐसी स्थिति में स्थानीय जनता ने बद्रीदत्त पाडे के नेतृत्व में इसे बन्द कराने का संकल्प लिया व मकर संक्रांति के दिन बांगेश्वर में सभी गांवों के प्रतिनिधियों ने अपने-अपने गांवों के रजिस्टर ले जाकर उन्हें सरयू में प्रवाहित कर इस प्रथा के अंत की घोषणा की। ब्रिटिश सत्ता के लाख विरोध के बावजूद यह पूर्णत सफल प्रयास सा जिसमें लगभग ४०,००० गांवों के प्रतिनिधियों ने अपने-अपने रजिस्टर सरयू में प्रभावित किये। जनसंकल्प व दृढ निश्चय के इस अनूठे प्रयास ने महात्मा गांधी तक को रोमान्चित किया। स्वयं गांधी जी के शब्दों में ’’इसका प्रभाव सम्पूर्ण था। एक रक्तहीन क्रांति‘‘। यद्यपि इसे दबाने का प्रयत्न किया गया पर यह सफल रहा। इसी आन्दोलन ने बद्रीदत्त पाण्डे को कुमांयू केसरी की उपाधि दिलायी। गौरीदत्त पाण्डे उर्फ गौर्दा ने भी जो लोकप्रिय कवि थे इसका भरपूर समर्थन किया। लोक गीतों में भी इसका वर्णन मिलता है। बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में कुली बेगार प्रथा के अंत की घोषणा का स्थानीय लोक गीत विधा झौडा में कुछ इस प्रकार उल्लेख मिलता है- ’’ओ झकूनी ऊंनी यों हृदय का तारा, याद ऊं छ जब कुल्ली बेगारा।खै गया ख्वै गया बडी बेर सिरा, निमस्यारी डाली गया चौरासी फेराड्ड सुनरे पधाना यो सब पुजी गो, धान ल्या, चौथाई ध्यू को। ह्यून चौमास जेठ असाठा, नाड भुखै बाट लागा अलमोडी हाटाड्ड बोजिया बाटा लगा यो छिल काने धारा, पाछि पडी रै यो कोडों की मारा।यो दीन दशा देखी दया को, कूर्माचल केसरी बदरीदत्त नामा। यो विक्तर मोहना हरगोविन्द नामा, ऐ पूजा तीन वीरा।सन् इक्कीस उतरैणी मेला, यो, ऐ पूजा तीन वीरा गंगा ज्यू का तीरा।सरजू बगडा बजायो लो डकां, अबनी रौली यो कुल्ली बेगारा। क्रुक सन सैप यो चाऐ रैगो, कुमैया वीर को जब विजय है गो।सरयू गोमती जय बागनाया, सांति लै सकीगे कुल्ली प्रथा।यह एक जनांदोलन था। जिसने क्षेत्र को बद्रीदत्त पांडे, मोहन सिंह मेहता, हरि कृष्ण पांडे, केदार दत्त पंत , शिव दत्त जोशी, देवी लाल वर्मा, मोहन जोशी, धर्मानन्द भट्ट जैसे व्यक्तित्व दिये जिन्होंने आगे चल स्वतंत्राता आंदोलन मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

साभार - क्रियेटिव उत्तराखण्ड www.creativeuttarakhand.com

Wednesday, March 19, 2008

गैरसैंण के बारे में गिर्दा के छन्द

२४ सितम्बर, २००० को गिर्दा ने गैरसैंण रैली में यह छ्न्द कहे थे, जो सच भी हुये

कस होलो उत्तराखण्ड, कां होली राजधानी,
राग-बागी यों आजि करला आपुणि मनमानी,
यो बतौक खुली-खुलास गैरसैंण करुंलो।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

टेम्पुरेरी-परमानैन्टैकी बात यों करला,
दून-नैनीताल कौला, आपुंण सुख देखला,
गैरसैंण का कौल-करार पैली कर ल्हूयला।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

वां बै चुई घुमाल यनरी माफिया-सरताज,
दून बै-नैनताल बै चलौल उनरै राज,
फिरि पैली है बांकि उनरा फन्द में फंस जूंला।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

’गैरसैणाक’ नाम पर फूं-फूं करनेर,
हमरै कानि में चडि हमने घुत्ति देखूनेर,
हमलै यनरि गद्दि-गुद्दि रघोड़ि यैं धरुला।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

Friday, February 22, 2008

उत्तराखंड में परिसीमन पर फिर से हो विचार

साथियो,
आज हमारे उत्तराखण्ड राज्य के सामने दो प्रमुख राजनैतिक समस्याएं हैं, पहला तो स्थाई राजधानी का प्रकरण और दूसरा परिसीमन का प्रकरण। परिसीमन के मामले में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की चुप्पी रही, सिर्फ उत्तराखण्ड क्रान्ति दल ने ही इसे प्रमुखता से उठाया और इसका विरोध किया। जब परिसीमन आयोग उत्तराखण्ड आया था तो उक्रांद ने इसकी तीनों बैठकों (देहरादून, नैनीताल और पौड़ी) में विरोध किया और आयोग को उत्तराखण्ड की वास्तविक स्थितियों से अवगत भी कराया। उत्तराखण्ड में परिसीमन भौगोलिक आधार पर या २००२ के परिसीमन के आधार पर हो तो उचित होगा। क्योंकि नये परिसीमन से पहाड़ी क्षेत्रों की ९ विधानसभा क्षेत्र समाप्त हो जायेंगे और यह सीटें मैदानी क्षेत्रों में जुड़ जायेंगी। मेरा मानना है कि उत्तराखण्ड में नये परिसीमन की आवश्यकता नहीं है, उसे यथावत ही रहने देना चाहिये। नये परिसीमन के लागू होने से पर्वतीय जनपदों के निम्न विधान सभा क्षेत्र कम हो जायेंगे-
१- जिला चमोली से एक सीट (नन्दप्रयाग)
२- पौड़ी गढ़्वाल से दो सीटें (१- धूमाकोट २- biironkhaal)
३- पिथौरागढ़ से एक सीट (कनालीछीना)
४- बागेश्वर से एक सीट (कांडा)
५- अल्मोड़ा से एक सीट (भिकियासैंण)
पर्वतीय जनपदों से कुल ६ (छ्ह) सीटें कम होंगी, जो मैदानी जनपदों में जोड़ी जायेंगी निम्नानुसार-
१- देहरादून जनपद में एक सीट
2- हरिद्वार जनपद में दो सीट
3- नैनीताल जनपद में एक सीट
4- उधम सिंह नगर जनपद में दो सीट
टिहरी, चम्पावत, रुद्रप्रयाग तथा उत्तरकाशी जनपदों में विधान सभा क्षेत्र यथावत रखे गये हैं।

साथियो,
उत्तराखण्ड में विधान सभा क्षेत्रों का परिसीमन २००१ में वर्ष १९७१ की जनगणना के आधार पर किया गया था। इसी परिसीमन में उत्तराखण्ड के साथ न्याय नहीं हो पा रहा था, रुद्रप्रयाग और चम्पावत जैसे दुर्गम इलाकों में १ लाख १४ हजार की आबादी पर विधान सभा क्षेत्र बनाये गये, वहीं देहरादून में ४९ हजार की आबादी पर एक विधायक बना दिया गया। हरिद्वार जनपद में जहां हर १६ किलोमीटर पर एक विधायक है वहीं पर्वतीय जनपदों में १३५ किलोमीटर पर एक विधायक है। हरिद्वार का विधायक एक ही दिन में अपने क्षेत्र का दो बार भ्रमण कर सकता है, वहीं धार्चूला का विधायक जिसका क्षेत्र जौलजीबी से शुरू होकर चीन बार्डर तक है, उसे १३५ किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। जिसमें ४० किलोमीटर ही सड़क मार्ग है, शेष ९५ किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। १० हजार फीट की ऊंचाई पर चीन सीमा से लगी जोहार, व्यांस और दारमा वैली की ४०० किलोमीटर की दूरी तय कर पाना क्या किसी चुनौती से कम है, आज फिर से परिसीमन करके उस क्षेत्र को और बढा दिया जायेगा। मैदानी जिले में २६१ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर एक विधायक है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में इससे १० गुना करीब २६४८ वर्ग किलोमीटर पर एक विधायक है। साफ है कि पहाड़ों की विषम भौगोलिक स्थिति और वहां पर संचार, सड़क और अन्य बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, उसके आधार पर यह परिसीमन कैसे हमें मान्य हो सकता है। विधायक निधि को ही देखा जाय तो वर्तमान में जो परिसीमन लागू किया जा रहा है, उससे ही पर्वतीय क्षेत्रों का प्रतिवर्ष ९.०० करोड़ रूपया विधायक निधि का ही कम हो गया है। आंकड़ों को देखा जाय तो मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या के प्रतिशत में लगातार वृद्दि हुई और पर्वतीय क्षेत्रों में यह आंकड़ा लगातार घट रहा है, रोजगार के लिये पलायन करना हमारी मजबूरी है। संविधान के अनुच्छेद ८१ एव ८२ में प्रावधान है कि प्रत्येक जनगणना के बाद विधान सभा और लोक सभा क्षेत्रों का परिसीमन किया जाय तथा ८४ वें संशोधन के अनुसार में १९७१ की जनगणना के आधार पर हुये परिसीमन को २००१ तक व १९९१ की जनसंख्या के आधार पर हुये परिसीमन को २०२६ तक परिसीमित मान लिया गया। संविधान के ८४ वें सशोधन में यह व्यवस्था की गई थी कि राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों को १९७१ की जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन सीटों का आवंटन किया जायेगा और इसके बाद २००१ की जनगणना के आधार पर फिर समायोजित किया जायेगा। इस प्रकार प्रस्तावित परिसीमन दो वर्षो १९७१ और २००१ की जनसंख्या के आधार पर किया गया था, न कि २००१ की गणना पर। इसमें यह भी व्यवस्था थी कि जिन राज्योम में १९७१ की जनगणना के चाधार पर परिसीमन हो गया है, वहां २०२६ तक परिसीमन की आवश्यकता नहीं है। चूंकि उत्तराखण्ड में १९७१ की गणना के आधार पर परिसीमन किया जा चुका था, तो इसे इस परिसीमन से अलग रखा जाना चाहिये था।

Tuesday, January 29, 2008


परिसीमन का विरोध करते लोग

Wednesday, January 23, 2008

आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,

गिरीश तिवारी "गिर्दा" की मर्मस्पर्शी कविता


आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,
नी करण दियौ हमरी निलामी, नी करण दियौ हमरो हलाल।
विचारनै की छां यां रौजै फ़ानी छौ, घुर घ्वां हुनै रुंछौ यां रात्तै-ब्याल,
दै की जै हानि भै यो हमरो समाज, भलिकै नी फानला भानै फुटि जाल।
बात यो आजै कि न्हेति पुराणि छौ, छांणि ल्हियो इतिहास लै यै बताल,
हमलै जनन कैं कानी में बैठायो, वों हमरै फिरी बणि जानी काल।
अजि जांलै कै के हक दे उनले, खालि छोड़्नी रांडा स्यालै जै टोक्याल,
ओड़, बारुणी हम कुल्ली कभाणिनाका, सांचि बताओ धैं कैले पुछि हाल।
लुप-लुप किड़ पड़ी यो व्यवस्था कैं, ज्यून धरणै की भें यौ सब चाल,
हमारा नामे की तो भेली उखेलौधें, तैका भितर स्यांणक जिबाड़ लै हवाल।
भोट मांगणी च्वाख चुपड़ा जतुक छन, रात-स्यात सबनैकि जेड़िया भै खाल,
उनरै सुकरम यौ पिड़ै रैई आज, आजि जांणि अघिल कां जांलै पिड़ाल।
ढुंग बेच्यो-माट बेच्यो, बेचि खै बज्याणी, लिस खोपि-खोपि मेरी उधेड़ी दी खाल,
न्यौलि, चांचरी, झवाड़, छपेली बेच्या मेरा, बेचि दी अरणो घाणी, ठण्डो पाणि, ठण्डी बयाल।

Tuesday, January 22, 2008

उत्तराखण्ड के अमर शहीदों को प्रसिद्द जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की श्रद्दांजलि

थातिकै नौ ल्हिन्यू हम बलिदानीन को, धन मयेड़ी त्यरा उं बांका लाल।
धन उनरी छाती, झेलि गै जो गोली, मरी बेर ल्वै कैं जो करी गै निहाल॥
पर यौं बलि नी जाणी चैनिन बिरथा, न्है गयी तो नाति-प्वाथन कैं पिड़ाल।
तर्पण करणी तो भौते हुंनी, पर अर्पण ज्यान करनी कुछै लाल॥
याद धरो अगास बै नी हुलरौ क्वे, थै रण, रणकैंणी अघिल बड़ाल।
भूड़ फानी उंण सितुल नी हुनो, जो जालो भूड़ में वीं फानी पाल।।
आज हिमाल तुमन के धत्यूछौ, जागो-जागो हो म्यरा लाल....!

हिन्दी भावार्थ-

नामयहीं पर लेते हैं उन अमर शहीदों का साथी, कर प्राण निछावर हुये धन्य जो मां के रण-बांकुरे लाल।
हैं धन्य जो कि सीना ताने हंस-हंस कर झेल गये गोली, हैं धन्य चढ़ाकर बलि कर गये लहू को जो निहाल॥
इसलिए ध्यान यह रहे कि बलि बेकार ना जाये उन सबकी, यदि चला गया बलिदान व्यर्थ युगों-युगों पड़ेगा पहचान।
तर्पण करने वाले तो अपने मिल जायेंगे बहुत, मगर अर्पित कर दें जो प्राण, कठिन हैं ऎसे अपने मिल पाना॥
ये याद रहे आकाश नहीं टपकता है रणवीर कभी, ये याद रहे पाताल फोड़ नहीं प्रकट हुआ रणधीर कभी।
ये धरती है, धरती में रण ही रण को राह दिखाता है, जो समर भूमि में उतरेगा, वही रणवीर कहाता है॥
इसलिए, हिमालय जगा रहा है तुम्हें कि जागो-जागो मेरे लाल........!

Tuesday, January 8, 2008

उत्तराखंड में परिसीमन पर फिर से हो विचार

देहरादून। उक्रांद विधायक पुष्पेष त्रिपाठी ने कहा कि नागालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और झारखंड की तरह ही उत्तराखंड के परिसीमन पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। उत्तराखंड में विधानसभा सीटों के परिसीमन को पहाड़ के लिए अन्यायपूर्ण बताते हुए श्री त्रिपाठी ने इसके लिए दोनों राष्ट्रीय दलों भाजपा तथा कांग्रेस के सांसदों को जिम्मेदार ठहराया। श्री त्रिपाठी ने एक बयान में कहा कि पर्वतीय क्षेत्र की दुरूह भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए परिसीमन में जनसंख्या के साथ भौगोलिक आधार पर भी गौर करने की मांग लगातार उठती रही। इसी आधार पर उक्त राज्यों के प्रस्तावों पर केंद्र सरकार वहां परिसीमन अयोग द्वारा किए गए परिसीमन के बाद भी संशोधन करने जा रही है। पहाड़ के साथ हो रहे अन्याय के लिए उन्होंने दोनों राष्ट्रीय दलों के सांसदों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि संसद में 84वां संशोधन के दौरान इन दोनों राष्ट्रीय दलों के सांसदों ने परिसीमन पर पर्वतीय क्षेत्र की भावनाओं को कभी आवाज देने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कहा कि वर्तमान मुख्यमंत्री भी तब संसद सदस्य थे। राज्य में भाजपा को समर्थन देते समय उक्रांद के नौ बिंदुओं पर भाजपा से अपनी सहमति दी थी। इसका चौथा बिंदु है- 2001 की जनसंख्या के आधार पर हुए परिसीमन को स्थगित कर जनसंख्या और भौगोलिक आधार पर परिसीमन लिए विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर संसद को भेजा जाएगा। विस के दो सत्र हो चुके हैं पर भाजपा ने इस महत्वपूर्ण बिंदु पर कभी गौर करने की जरूरत नहीं समझी। श्री त्रिपाठी ने कहा कि केंद्र सरकार के राजनीतिक मामलों की केबिनेट कमेटी ने नए परिसीमन को हरी झंडी दे दी है। लेकिन सिर्फ पांच राज्यों नागालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और झारखंड में परिसीमन में संशोधन होने जा रहा है। उन्होंने कहा कि यदि यहां की विस से इस तरह का प्रस्ताव संसद को भेजा जाए तो सूबे के परिसीमन में संशोधन हो सकता है। उन्होंने कहा कि जनसंख्या के आधार पर हुए परिसीमन में पहले पर्वतीय क्षेत्र से नौ सीटें कम होने की बात कही जा रही थी पर बाद में मानकों में ढील देने का दावा करते हुए छह सीटें कम की गई। उन्होंने कहा कि यदि मानकों में ढील देना संभव है तो फिर पर्वतीय क्षेत्र से एक भी सीट कम नहीं होनी चाहिए।